Book Title: Ishtopadesh Author(s): Sahajanand Maharaj Publisher: Sahajanand Shastramala Merath View full book textPage 3
________________ इष्टोपदेश प्रवचन प्रथम भाग यस्य स्वयं स्वभावाप्तिरभावे कृत्स्नकर्मणः । तस्मै संज्ञानरूपाय नमोऽस्तु परमात्मने।।1।। स्वभावप्राप्तिः - समस्त कर्मो का अभाव होने पर जिसको स्वयं स्वभाव की प्राप्ति हो जाती है उस सम्यग्ज्ञानस्वरूप परमात्मा के लिए मेरा नमस्कार हो। इस मंगलाचरण में पूज्यपाद स्वामी ने अपने आशय के अनुकूल प्रयोजन से नमस्कार किया है। वे थे सम्यग्ज्ञान के पूर्ण विकास के इच्छुक, अतः नमस्कार करने के प्रसंग में सम्यग्ज्ञानस्वरूप परमात्मा पर दृष्टि गयी है। यह सम्यग्ज्ञानस्वरूपपना अन्य और कुछ बात नही है। जैसा स्वभाव है उस स्वभाव की प्राप्तिरूप है। जीव को ज्ञान कहीं कमाना नही पड़ता है कि ज्ञान कोई परतत्व हो और उस ज्ञान का यह उपार्जन करे, किन्तु ज्ञानमय ही स्वयं है इसके विकास का बाधक कर्मो का आवरण है। कर्मो का आवरण दूर होने पर स्वंय ही स्वभाव की प्राप्ति होती है। प्रभु की स्वयंभुता - प्रभु के जो परमात्मत्व का विकास है वह स्वंय हुआ है, इसीलिए व स्वंयभू कहलाते है। जो स्वयं हो उसे स्वयंभू कहते है। स्वंय की परणति से ही यह विकास हुआ है, किसी दूसरे पदार्थ के परिणमन को लेकर यह आत्मविकास नही हुआ है और न किसी परद्रव्य का निमित्त पाकर यह विकास हुआ है। यह विकास सहज सत्व के कारण बाधक कारणो के अभाव होने पर स्वयं प्रकट हुआ है। इस ग्रन्थ के रचयिता पूज्य पाद स्वामी है। भक्तियो के सम्बन्ध में यह कहा जाता है कि जितनी भक्तियाँ प्राकृत भाषा में है उन भक्तियो के रचियता तो पूज्य कुन्दकुन्द स्वामी है और जितनी भक्तियाँ संस्कृत में है उनके रचयिता पूज्यपाद स्वामी है। ये सर्व विषयो में निपुण आचार्य थे। इनके रचे गए वेद्यक ग्रन्थ, ज्योतिषग्रन्थ, व्याकरण ग्रन्थ आदि भी अनूठे रहस्य को प्रकट करने वाले है। इस ग्रन्थ का नाम इष्टोपदेश कहा गया है। इस ग्रन्थ के अंत में स्वंय ही आचार्य देव ने "इष्टोपदेश इति" ऐसा कहकर इस ग्रन्थ का नाम स्वयं इष्टोपदेश माना है। इष्ट का उपदेशः - इस ग्रन्थ में इष्ट तत्व का उपदेश है। समस्त जीवों को इष्ट क्या है? आनन्द। उस आनन्द की प्राप्ति यथार्थ में कहाँ होती है और उस आनन्द का स्वरूप क्या है? इन सब इष्टों के सम्बन्ध में ये समस्त उपदेश है। आनन्द का सम्बंध ज्ञान के साथ है, धन वैभव आदि के साथ नही है। ज्ञान का भला बना रहना, ज्ञान में कोई दाष और विकार न आ सके, ऐसी स्थिति होना इससे बढ़कर कुछ भी वैभव नही है, जड़ विभूति तो एक अंधकार है। उस इष्ट आनन्द की प्राप्ति ज्ञान की प्राप्ति में निहित है और इस ज्ञान की प्राप्ति का उद्देश्य लेकर यहाँ ज्ञानमय परमात्मा को नमस्कार किया है। स्वभाव ही ज्ञान है। आत्मा का जो शुद्ध चैतन्यरूप निश्चल परिणाम है, जो स्वतंत्र है, निष्काम है, रागद्वेष रहित है, उस स्वभाव की प्राप्ति स्वयं ही होती है, ऐसा कहा है। उपयोग से स्वभाव की प्राप्ति - भैया । स्वभाव तो शाश्वत है किन्तु स्वभाव की दृष्टि न थी पहिले और अब हुई है, इस कारण स्वभाव की प्रसिद्धि को स्वभाव की प्राप्तिPage Navigation
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