Book Title: Hindi Gujarati Dhatukosha
Author(s): Raghuvir Chaudhari, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 10
________________ थी । विषय से सम्बन्धित कोई पुस्तक मिल जाती तो पढ़ लेता । भायाणीसाहब मेरी इस पढ़ने की प्रवृत्ति की प्रशंसा नहीं करते थे, कहते थे वर्गीकरण करे। । शुरू किया । तत्सम तद्भव, देशज आदि वर्गों के कार्ड अलग करने लगा । तब तक मैं विषय को थोड़ा बहुत समझने लगा था इसलिए यह भी समझ गया कि जो कुछ कर रहा हूँ वह सब सही नहीं है । भायाणीसाहब से समय माँगना पड़ा। वर्गीकरण का सही तरीका बताने के साथसाथ उन्होंने प्रेरणार्थक आदि क्रियारूपों के कार्ड एक और रख देने को कहा । वर्गीकृत मूल धातुओं का लिख लेने के बाद सभी धातुओं का संमिलित तुलनात्मक एवं व्युत्पत्तिदर्शक धातुकोश तैयार किया । हिन्दी क्रियाओं के चयन के लिए ज्ञानमंडल के 'बृहत हिन्दी कोश' के तृतीय संस्करण का तथा गुजराती क्रियाओं के चयन के लिए गुजरात विद्यापीठ के 'सार्थ जोडणी कोश' के पाँचवे संस्करण का आधार लिया था । कोई प्रचलित क्रिया छूट न जाए इस दृष्टि से 'शब्दसागर' के दो खण्ड देखे और कुछ सोचकर विकल्प के रूप में 'मानक हिन्दी कोश' का साद्यंत देख गया । धानुकाश में उल्लेखनीय वृद्धि हुई । जहाँ किसी क्रिया के सकर्मक अकर्मक दोनों रूप अस्तित्व में हों, वहाँ इनमें से एक को ही पसंद करने का प्रयत्न रहा है परन्तु ध्वन्यात्मक वैविध्यवाले सभी रूप संगृहीत किए हैं। टर्नर के काश से व्युत्पत्तियाँ खोजते समय भी कुछ कालग्रस्त धातुएँ संगृहीत करने योग्य लगीं। धातुकोश में सभी सुलभ धातुओं का समावेश करने की आकांक्षा से बोलीविषयक शोधकार्यों से तथा अन्य पुस्तकों से भी धातुएँ ली हैं। धातुरूपों की संख्या चार हजार से भी बढ़ गई (4270) ; इसका रहस्य यही । एक ही धातुरूप के अंतर्गत समाविष्ट तथापि व्युत्पत्ति तथा अर्थ की दृष्टि से भिन्नता रखनेवाली 185 धातुओं की अलग से गणना करने पर संख्या बढ़कर 4455 होगी ! रूपवैविध्य से मुक्त होकर वर्गीकरण के लिए तृतीय खण्ड में 2981 धातुएँ पसंद की हैं । प्रस्तुत अध्ययन - विषय का सम्बन्ध व्याकरण से भी स्थापित किया जा सकता था। इसका ऐतिहासिक भाषाविज्ञान की दिशा प्राप्त हुई इसका श्रेय भायाणीसाहब को है । अब तो ऐसी चाह जगी है कि बंगाली - मराठी का साथ लेकर चार भाषाओं का तुलनात्मक धातुकोश तैयार करूँ । धातु के निकट परिचय के बिना भाषा के भीतर पहुँचना संभव नहीं। और एक चुनौती भी दे रखी है कुछ विदेशी विद्वानों ने ! टर्नरसाहब ने 'नेपाली डिक्शनरी' तथा 'कम्पेरेटिव डिक्शनरी आफ इण्डो-आर्यन लैंग्वेजिज' के संपादन में अर्धशताब्दी का जो भव्य पुरुषार्थ किया है वह हमारे लिए उद्दीपन विभाव क्यों न बने ? काशविज्ञान के क्षेत्र में गुजराती की अपेक्षा हिन्दी में विशेष कार्य हुआ है । हिन्दी में 110 से अधिक उल्लेखनीय कोश प्रकाशित हुए हैं। गुजराती में भी शब्दकोश - ज्ञानकोश की परंपरा शतायु हो चुकी है । 'भगवद्गामंडल कोश' ' शब्दसागर' जैसा ही विराट प्रयत्न था । इन दिनों श्री के. का. शास्त्री द्वारा संपादित 'बृहत गुजराती काश' भी सुलभ हो चुका है। गुजराती के उल्लेखनीय कोशों की संख्या 60 के आसपास 1 इस पुरुषार्थ के बावजूद आधुनिक भाषाविज्ञान तथा व्युत्पत्तिशास्त्र के पर्याप्त ज्ञान के अभाव में हिन्दी या गुजराती में पूर्णरूप से वैज्ञानिक कोश सुलभ नहीं हैं । हिन्दी कोषविज्ञान के विद्यार्थी डा. युगेश्वर ने ठीक ही कहा है कि अब कोश- कार्य किसी एक व्यक्ति के द्वारा संभव नहीं । संस्कृत में 'धातुपाठ' की एक समृद्ध परंपरा है। हिन्दी कवि रत्नजित ने सन् 1713 में भाषा-व्याकरण के अंतर्गत धातुमाला दी है। 1969 में डॉ मुरलीधर श्रीवास्तव ने 1028 धातुओं का समावेश करनेवाला 'हिन्दी धातुकोश' प्रकाशित किया है। गुजराती में हरिदास हीराचंद ने सन् 1865 में 'धातुमंजरी' तथा टेलर ने 1870 में 'धातुसंग्रह' का प्रकाशन किया था । 'गुर्जर - शब्दानुशासन' नामक व्याकरण में स्वामी भगवदाचार्यजी ने गुजराती धातुपाठ दिया है । इसमें सकर्मक, प्रेरक आदि रूपों समेत 1972 धातुएँ संग्रहीत हुई हैं। मैंने परिशिष्ट में 2136 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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