________________
फेब्रुअरी २०११
१
वि.भाष्य जेवा प्रतिष्ठाप्राप्त ग्रन्थमां कडक शब्दोमां निरसन होवा छतां, तमाम श्वेताम्बर तार्किक ग्रन्थो से ज मतने ओक अवाजे स्वीकारे' - अ कंइ वगर कारणे तो न ज होय. आ कारणो कदाच नीचे मुजब होई शके:
१३. आपणुं ध्यान बीजे होय तो वस्तु आंख सामे होवा छतां आपणने अनो बोध नथी थतो. अ ज रीते कोईक वार आंख सामेनी वस्तु माटे पण ‘मने नथी जडतुं' ओम आपणे बोलतां होईओ छीओ. आ वात सूचवे छे के आंख सामे वस्तु आवी ओटले सीधो अनो 'कंइक छे' ओवो बोध - अर्थावग्रह थई ज जाय ঔ जरूरी नथी. पण बोध माटे आंख अने वस्तु वच्चे चोक्कस प्रकारो सम्बन्ध स्थपावो आवश्यक छे. नहीं तो सम्बन्ध स्थपाया वगर ज जो बोध थई जतो होय तो, आंख खुल्ली होय त्यारे सतत चाक्षुषज्ञान थतुं रहे अने आपणे बीजी कोई इन्द्रियथी बोध ज न करी शकीओ. आ सम्बन्ध भले नाक अने गन्धद्रव्यनी वच्चे स्थपाता सम्बन्धनी जेम संयोगरूप न होय अने तेथी तेने ‘व्यञ्जनावग्रह' न कहीओ; पण अथी कंइ आ सम्बन्धनी चोक्कस भूमिकाने उवेखी शकाय नहीं, अने चाक्षुष प्रत्यक्षमां सीधी अर्थावग्रहथी ज शरूआत थाय छे अम कही शकाय नहीं. भले आ सम्बन्ध ज्ञानात्मक न होय; पण जो व्यञ्जनावग्रहने उपचारथी ज्ञानरूप मानी अनो श्रोत्रादिज्ञाननी उत्पत्ति - प्रक्रियामां समावेश थई शकतो होय, तो चाक्षुषनी प्रक्रियामां आ सम्बन्धने गणतरीमां न लेवानुं कोई कारण नथी. मानस प्रत्यक्षमां पण ओ रीते विचारी शकाय.
२. आगमिक व्यवस्थामां सौथी मोटी मूंझवण दर्शनना मुद्दे रहे छे. ओक तरफ छद्मस्थने पहेलां अन्तर्मुहूर्त सुधी दर्शन-निराकारोपयोग होय अने
१. गाथा २७४ -२७९
२. “अक्षार्थयोगे दर्शनानन्तरमर्थग्रहणमवग्रहः"
२१
प्र.मी.
"1
पातानन्तरसमुद्भूतसत्तामात्रगोचरदर्शनाज्जातमाद्य० '
-
१.१.२६, “विषयविषयिसन्नि
प्र.न. १.७. सन्मतितर्कटीकामां
पण ओम ज छे.
३. पृ. १९-२० पर दर्शावेली भिन्नताओनो आ क्रमाङ्क छे.
४. अर्थावग्रहनुं उपादानकारण व्यञ्जनावग्रह छे माटे व्यञ्जनावग्रह ज्ञानरूप छे ओम स्वीकारवामां आवे छे. जो के ओक पक्ष से संयोग साथे प्रकटती अल्प ज्ञानमात्राने व्यञ्जनावग्रह गणे छे, पण ओ पक्षे चक्षुरिन्द्रियमां पण अर्थावग्रहथी पूर्वे अल्प ज्ञानमात्रा मानवी जरूरी छे. आ अल्पज्ञानमात्रानो काळ प्राप्यकारी इन्द्रिय करतां ओछो होय ओम बने.