Book Title: Hemchandracharya ni Agam vani
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: ZZ_Anusandhan

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Page 25
________________ अनुसन्धान-५४ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग-२ टीकामां पण आना कारण तरीके संशयना अप्रामाण्यने रजू करायुं छे. तात्पर्य अम समजाय छे के मतिज्ञानरूप अक सळंग ज्ञानोपयोग भले प्रमाणरूप होय; पण अने तबक्काओमां विभाजित करो तो कोइक तबक्को स्वतन्त्र रीते अप्रमाण पण होय. अने अटले मतिज्ञानरूप प्रमाणना भेद तरीके अनी गणतरी पण न थाय. त.वा.कार तो अवग्रह-ईहाने अप्रमाण मानवा छतां ओनो ज्ञानोत्पत्तिना क्रममा समावेश करे छे. माटे संशयना असमावेशनुं कारण तेओओ जूहूँ जणाव्यु छे२ : ईहा संशयपूर्वक ज होय छे, माटे ईहाना समावेशथी ज ओनो समावेश पण थई जाय छे. अने तेथी संशयनो अलगथी समावेश जरूरी नथी. ५. अक्षार्थयोग अने दर्शन अप्रमाण छे, अने अवग्रहथी शरु थती तमाम ज्ञानप्रक्रिया प्रमाण छे. प्र.न.मां पण मतिज्ञानना भेदो अवग्रहथी ज देखाडाया छे,३ विषयविषयिसन्निपात अने दर्शन देखाड्या छे खरा; पण ते अवग्रहना उत्पादनी प्रक्रिया माटे, मतिज्ञानना भेद तरीके नहीं. माटे प्र.न.कारने पण प्र.मी.मां दर्शावेली प्रमाणव्यवस्था मान्य होय तेम जणाय छे. त.वा.मां अवग्रह अने ईहाने पण अप्रमाण गणावाया छे. वास्तविक ज्ञान ज प्रमाण कहेवाय, अने अवग्रह पछी तो संशय पेदा थाय ज छे, माटे अवग्रह निश्चय न करावी आपतो होवाथी अप्रमाण छे. ओ ज रीते ईहा पण निर्णयात्मक न होवाथी अप्रमाण छे - आवां कारणो त्यां रजू करायां छे, जे गेरवाजबी लागे छे. कारण के घणा अपायो पछी संशय जागे छे, तो अपायोने पण अप्रमाण गणवा ? नहीं ज, कारण के तार्किकमते स्वविषयमां सम्यक् निर्णय कराववो अ ज प्रामाण्य छे. अने आवं प्रामाण्य जेम अपायमां घटे छे, तेम सामान्यना ग्राहक अवग्रहमां पण घटे छे. विशेष विशेषोनो संशय कंई तेनी पूर्वेना सामान्य के प्राथमिक विशेषोना ग्राहक ज्ञानने अप्रमाण बनावी १. "संशयस्याऽप्रमाणत्वादवग्रहादिषु पाठो न कृतः" - प्र.न.-२.११ बालबोधिनी. २. "अर्थगृहीतेः सूत्रे संशयो नोक्तः" - त.वा.-१.१५.१३ ३. प्र. न. - २.७-११ ४. त. वा. - १.१५.६

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