Book Title: Hemchandracharya ni Agam vani
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: ZZ_Anusandhan

View full book text
Previous | Next

Page 23
________________ ३२ अनुसन्धान-५४ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग-२ आ भेदो घटे छे. हवे आपणे आगमिक व्यवस्था तपासीओ तो जणाशे के अमां प्रथम ईहा 'आ शब्द छे के अशब्द' ओवी ज होय छे. प्रथम अपाय-धारणा पण 'शब्द छे' अवां नक्की ज होय छे. तो अमां पण आ भेदो कई रीते घटवाना? आ भेदो स्वरूपभेद शक्य होय तो ज घटे, अने आगमिक व्यवस्था मुजब तो प्रथम ईहादिमां ते शक्य नथी. अमां तो वधुमां वधु द्वितीय ईहाथी ज आ भेदो वस्तुतः घटी शके. अने व्यञ्जनावग्रह, अर्थावग्रह, प्रथम ईहाअपाय-धारणा आ बधामा उपचारथी अथवा तर्कथी' ज घटाववा पडे. ताकिक व्यवस्था तो प्रथम अपाय ज 'शंखशब्द छे' अq स्वीकारती होवाथी, अमां प्रथम ईहाथी ज आ भेदो वास्तविक रीते घटी शके छे अने ओ रीते आगमिकोओ आपेलो अने फकरानी शरुआतमां लखेलो उत्तर पण संगत थाय प्र.मी.ना निरूपणनी केटलाक जैन ग्रन्थोनां निरूपण साथे तुलना प्र.मी. गत मतिज्ञानोत्पत्तिना निरूपणमां आगमिक प्ररूपणाथी भिन्न बाबतो विशे अन्य ग्रन्थो शुं कहे छे ते जोई : १. अवग्रह पूर्वे चक्षु अने मन माटे पण अक्षार्थयोग (-इन्द्रियना विषय साथेना सम्बन्ध)नी अपेक्षा राखवी. प्र.न., सर्वार्थसिद्धि, त.वा. जेवा मोटा भागना तार्किकयुगना ग्रन्थोमां बधी इन्द्रियो माटे विषयविषयिसन्निपातनुं निरूपण छे. लघीयस्त्रयमां५ आना माटे वापरेलो 'अक्षार्थयोग' शब्द ज प्र.मी.मां मळे छे ते ध्यानार्ह छे. ज्ञानबिन्दुमां उपाध्यायजीओ पण प्रश्न उठाव्यो छे के जो प्राप्यकारी इन्द्रियमां व्यञ्जनावग्रह १-२. वि.भाष्य-गाथा ३१० टीका, अत्रे कारणमां वैशिष्ट्य न होय तो कार्यमां पण न आवे तेवो तर्क आपवामां आव्यो छे. ३. जै.त.जेवा केटलाक तार्किक ग्रन्थो आ बाबतमां लगभग आगमिक निरूपणने ज अनुसरे __ छे. अथी अहीं 'मोटाभागना' अम लखवामां आव्युं छे. आगळ पण तमाम तार्किको विशेनी वातमां जै.त. जेवा ग्रन्थोने न गणवा. ४. जुओ पृ. २१-टि. २, पृ. २६-टि. २ ५. अक्षार्थयोगे सत्तालोकोऽर्थाकारविकल्पधीः (लघीयस्त्रय - ५-)

Loading...

Page Navigation
1 ... 21 22 23 24 25 26 27 28 29