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फेब्रुआरी २०११
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ज न होय तो आ ईहानो काळ क्याथी लाववो ? ३. 'आ शब्द छे' ओ साकार ज्ञान छे अने अर्थावग्रह निराकार होय छे. ४. अर्थावग्रहमां पण विशेषोनुं ग्रहण मानो अने अपायमां तो विशेषोनुं ग्रहण होय ज छे - तो ओ बन्ने वच्चे भेदरेखा कई रीते दोरवी ? विशेषोनी न्यूनाधिकताने आधारे पण बन्नेने जुदा पाडवा शक्य न बने; कारण के छद्मस्थना कोई पण ज्ञानगत विशेषो कोईकनी अपेक्षाओ थोडा अने कोईकनी अपेक्षाओ वधारे होय छे. ५. जो अर्थावग्रहमां विशेषोनुं ग्रहण मानो तो आ विशेषो केटला ? अनो नियामक कोई न होवाथी 'आ शंखशब्द छे' अवो बोध पण अमां थई जवानी आपत्ति आवशे."
वि.भाष्यमां अपायेलां उपरनां कारणोनो ताकिको द्वारा प्रतिवाद करवामां आव्यो होय ओम जणातुं नथी. छतांय तार्किको वि.भाष्यनी रचना पहेलां अने पछी अक सरखी रीते आगमिक प्ररूपणाथी भिन्न निरूपण करता रह्या छे ओ सूचवे छे के आ कारणो अवश्य विचारणीय छे. माटे वस्तुस्थितिने केन्द्रमां राखी विचारतां जे जणायुं ते अहीं क्रमशः नोंधवामां आवे छे :
११. तार्किको अवग्रहने ओक समयनो मानता ज न होय तो तेओनी सामे आ दलीलनो अर्थ नथी. तो पण धारो के मानी लईओ के अवग्रह ओक समयनो ज मानवो जोई); पण खुद आगमिक आचार्यो ओने ओक समयनो स्वीकारी शके खरा ? ना, शक्य ज नथी. कारण के ज्ञानमात्र स्वसंविदित छे२ अर्बु जैन परम्परा दृढपणे माने छे. अने एकसामयिक घटनाने छद्मस्थ जीव संवेदी न शके ओ पण तेने मान्य छे. हवे, अर्थावग्रह ओक समयनो ज होय तो अनुं संवेदन कई रीते शक्य बने ?
वास्तवमा अर्थावग्रहने अक समयनो कहेवा छतां अनुं स्वसंवेदन स्वीकारनारा आगमिको, कथयितव्य आ छे : इन्द्रिय-अर्थना संयोग साथे ज प्रगटेली अत्यल्प ज्ञानमात्रा ज वृद्धि द्वारा अन्तर्मुहूर्तकाळे 'कंइक छे' अवो बोध
१. पृ. २६ पर दर्शावेलां कारणोनो आ क्रमांक छे. २. "न हि काचित् ज्ञानमात्रा साऽस्ति, या न स्वसंविदिता नाम ।" - प्र.मी.-१.१.३ टीका ३. ज्ञान विषयनी जेम पोताने पण जाणे एने स्वसंवेदन कहेवामां आवे छे.