Book Title: Gruhastha Dharm Part 02
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Akhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh

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Page 333
________________ ( ३१८ ) भी न होगा और दूसरी ओर उनके द्वारा अनेक अनर्थ भी होंगे तथा उन्हें कठिनाई भी उठानी होगी । इसलिए जब तक उनमें संसार-व्यवहार से सर्वथा निकलने की क्षमता न हो, उनमें पूर्ण सन्तोष और पूर्ण धैर्य न हो, तब तक उन्हें अपरिग्रह व्रत को स्वीकार करने को कहना उन पर ऐसा बोझ डालना है जिसे वे उठा नहीं सकते । इस प्रकार के विचारों से भगवान् ने गृहस्थों के लिए इच्छा परिमारण व्रत बताया है । इच्छा परिमाण व्रत का अर्थ हैं, सांसारिक पदार्थों से सम्बन्ध रखने वाली इच्छा को सीमित करना । यह निश्चय करना कि मैं इतने पदार्थों से अधिक की इच्छा नहीं करूंगा । इस प्रकार की जो प्रतिज्ञा की जाती है उसका नाम 'इच्छा परिमाण व्रत' है । अपरिग्रह व्रत को स्वीकार करने के लिए संसार के समस्त पदार्थों से विरमण करना होता है, संसार के समस्त पदार्थ त्यागने होते हैं, अपरिग्रही होना होता है । लेकिन इच्छा परिमाण व्रत स्वीकार करने के लिए संसार के समस्त पदार्थ नहीं त्यागने पड़ते । हां, वे पदार्थ तो अवश्य त्यागने होते हैं जिनकी गणना महान् परिग्रह में है । इच्छापरिमाण व्रत स्वीकार करने वाले को इस बात की प्रतिज्ञा करनी पड़ती है कि मैं इन पदार्थों से अधिक पदार्थ अपने अधिकार में न रखूंगा और न इन पदार्थों के सिवा किसी पदार्थ की इच्छा ही करूंगा । इस प्रकार प्रांशिक रूप से परिग्रह का विरमण करके महान् परिग्रही न होने के लिए जो प्रतिज्ञा की जाती है उसका नाम इच्छा परिमाण व्रत है । इस व्रत को स्वीकार करने के लिए पदार्थों की मर्यादा की जाती है । कुछ पदार्थों के सिवा शेष पदार्थों की ओर से

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