Book Title: Gruhastha Dharm Part 02
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Akhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh

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Page 341
________________ ( ३२६ ) इच्छा परिमाण व्रत स्वीकार करने से इहलौकिक और पारलौकिक अनेक लाभ हैं । इच्छा या तृष्णा का कभी अन्त नहीं आता । जैसे आग में घी डालने से आग और प्रज्वलित होती है, उसी प्रकार पदार्थों के मिलने से इच्छा और बढ़ती ही जाती है, कम नहीं होती । इस प्रकार की बढ़ी हुई इच्छा के कारण मनुष्य का जीवन भारभूत एवं कष्टप्रद बन जाता है । ऐसा आदमी न तो शान्ति से खापी या सो सकता है, न ईश्वर - भजनादि आत्म-कल्याण के कार्य ही कर सकता है । उसको प्रत्येक समय अपनी बढ़ी हुई इच्छा की पूर्ति की ही चिन्ता रहती है । कोई भी समय ऐसा नहीं होता कि जब उसे शान्ति मिले । उसके पास कितनी भी सम्पत्ति हो जाय, उसको संसार के समस्त पदार्थ मिल जावें, तब भी प्रशान्ति बनी ही रहती है । इच्छा परिमाण व्रत स्वीकार कर लेने पर, इस प्रकार की अशान्ति मिट जाती है और गार्हस्थ्य जीवन महान् दुःखमय नहीं रहता, अपितु सुखमय हो जाता है । परिग्रह समस्त दुःख और जन्ममरण का कारण है । उन दुःखों से बचने और जन्ममरण से छूटने के लिए ही अपरिग्रह व्रत या परिग्रह - परिमाण व्रत स्वीकार किया जाता है । अपरिग्रह व्रत का पालन करने वाला जन्म मरण से प्रायः सर्वथा छूट जाता है । वह न तो फिर जन्मता ही है, न मरता ही है और न उसे किसी प्रकार का कष्ट ही होता है । यदि उसने अपनी इच्छा का सर्वथा निरोध कर लिया है और पूर्वोपात्त कर्म क्षय कर दिये हैं तब तो उसी भव में मुक्त हो जाता है, अन्यथा एक या दो भव में मुक्त हो जाता है । जो परिग्रह का सर्वथा त्याग नहीं कर सकता, फिर भी

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