Book Title: Granthraj Shri Pacchadhyayi
Author(s): Amrutchandracharya, 
Publisher: Digambar Jain Sahitya Prakashan Mandir

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Page 4
________________ जबकि स्व. श्री देवकीनन्दनजी की टीका में मात्र ११४१ सूत्र ही दिये गये हैं। यानि ७६८+११४१ = १९०९ सूत्र कुल हैं और श्री मक्खनलालजी की टीका में १९१३ होते हैं। इसको सूक्ष्मता से देखा गया तो श्री मक्खनलालजी ने : सूत्र ७४५ ( दूसरा अध्याय) पर प्रवचनसार की गाथा २०८ दी है। सूत्र ७६५ (दूसरा अध्याय) पर प्रवचनसार की गाथा ७ दी है। सूत्र ७७४ (दूसरा अध्याय) पर पुरुषार्थ सिद्धिउपाय की गाथा २१२ दी है। और सूत्र ८०५ (दूसरा अध्याय) निम्नलिखित सूत्र है : "आदहिदं का दव्वं जइ सक्कड़ पर हिदं च कादव्वं । आद हिंद पर हिटा दो आट हिदं सुदतु कादव्वं ॥ इन्हीं सूत्रों को श्री देवकीनन्दनजी ने भी दिया है, किन्तु वगैर कुछ लिखे सूत्रों पर संख्या नहीं दी है। इसप्रकार सूत्रों की वास्तविक संख्या १९०१ ही होती है। श्री सरनारामजी ने भी इन्हीं का अनुसरण कर १९०९ ही संख्या दी है। इन्होंने सूत्रों की संख्या दो भागों में न कर लगातार रखी है जो कि स्वाध्याय की दृष्टि से ठीक ही है। इसके अतिरिक्त श्री सरनारामजी ने दूसरी पुस्तक में सूत्र ३४० से आगे लिखा है कि "३४१ से ४१० तक के श्लोकों की टीका श्री देवकीनन्दनजी की पुस्तक में से देख लें।' उन्होंने नीचे नोट भी दिया है कि "३४१ से ४१० तक विषय जानबूझ कर छोड़ दिया गया है जिसको उसके अभ्यास की इच्छा हो वे दूसरी टीकाओं से अभ्यास कर लें। इसके छोड़ने से कुछ हानि नहीं है और न विषय का अनुसंधान टूटता है। उनमें सत् और परिणाम के केवल दृष्टान्ताभास थे।" किन्तु प्रकाशन समिति की राय में इन श्लोकों का क्रम टूटना नहीं चाहिए; क्योंकि पाठकगण दूसरी टीकाओं को कहाँ और कैसे देखेंगे। अतः ये श्लोक ३४१ से ४१० तक श्री देवकीनन्दनजी की टीका से लेकर क्रम न टूटने के कारण शामिल कर दिए गए हैं। अतः यह ग्रन्थराज अब जितना उपलब्ध है स्वयम् में पूर्ण है। इसके अलावा गाथा नं. ८७६ जो श्री मक्खनलालजी की व श्री देवकीनन्दनजी की टीकाओं में नं. १०८ द्वितीय खण्ड में है वह श्री सरनारामजी ने छोड़ दी है क्योंकि प्राप्त ग्रन्थों में यह सूत्र की एक ही पहली पंक्ति मिलती है। उसमें श्री मक्खनलालजी ने इस प्रकार दी है - "अपि चाचेतनं मूर्त पौद्गलं कर्म तद्यथा। (१०८) दूसरी पंक्ति - ( छोड़ दी है) उसका अर्थ लिखा है - "अचेतन, पौद्गलिक, मूर्त द्रव्य कर्म कारण वह वैभाविक भाव हैं। यह परस्पर कारणपना इस प्रकार है कि मानो एक-दूसरे के उपकार का परस्पर उपकार ही चुकाते हों।" "किन्तु श्री देवकीनन्दनजी की टीका में ऊपर की पंक्ति श्री गवखनलालजी की तरह है। दूसरी पंक्ति में लिखा है "[आत्मना बध्यते नित्य मितौ, क्षिप्त कनक गदंवत ]" १०८ ___ अर्थ - "इनमें से कम यह अचेतन मूर्त और पौद्गलिक होते हैं जो भित्ति पर फेंके गये रज कण के समान आत्मा से बँध जाते हैं।) किन्तु श्री सरनारामजी ने इस गाथा को अप्राप्य लिख कर छोड़ दिया है। पाठकों की सुविधा के लिए यह गाथा भी इस ग्रन्थ में छपवा दी है। कुछ निर्देश स्व. सरनारामजी ने अपनी 'मासिक आर्ष टीका" में पाठकों के लिए दिये हैं अतः उनको भी यहाँ देना उचित समझते हैं : १. प्रथम तो उन्होंने यह माना है कि इस ग्रन्थ के लेखक आचार्य अमृतचन्द्रजी ही हैं। इसके मुख्य कारण उन्होंने (१) उनकी भाषा की शैली, (२) वन्दना शुरू में करने का ढंग व (३) श्लोकों के पुनः देने की शैली आदि माने हैं।

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