Book Title: Gopachal ka Ek Vismrut Mahakavi Raidhu
Author(s): Rajaram Jain
Publisher: Z_Tirthankar_Mahavir_Smruti_Granth_012001.pdf

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Page 1
________________ गोपाचल का एक विस्मृत महाकवि-रइधू | डा. राजाराम जैन भारतीय-वाङ्गमय के उन्नयन में जिन वरेण्य साधना का प्रमुख स्थल गोपाचल (ग्वालियर) दुर्ग था। साहित्यकारों ने अथक परिश्रम एवं अनवरत साधना उसने गोपाचल की महिमा का गान बड़े ही श्रद्धासमन्वित करके अपना उल्लेख्य योगदान किया है, उनमें महाकवि भाव से विस्तारपूर्वक किया है। उसके साहित्य में रइधू अपना प्रमुख स्थान रखते हैं। उनका अवतरण सामाजिक एवं सांस्कृतिक प्रसंगों में कई ऐसे वर्णन एवं एक ऐसे समय में हुआ था जब राजनीतिक विषमताओं शब्दावलियाँ प्राप्त हैं, जिनसे यही सिद्ध होता है कि एवं युद्ध-विभीषिकाओं से जन-जीवन जर्जर हो रहा था, उक्त कवि गोपाचल का निवासी था।। तलवारों और भालों की निरन्तर बौछारों से शान्ति भी शान्ति की खोज कर रही थी, तब रइध ने जन- काल-निर्णय मानस की वेदना का अनुभव किया और एक लोकनायक महाकवि का जन्म कब एवं किस वर्ष हुआ, यह कवि के रूप में अपनी अमृतस्रोतस्विनी को प्रवाहित जानकारी भी अभी तक अप्राप्त है, किन्तु कवि ने किया। उनकी रचनाओं का विषय-वविध्य, संस्कृत, अपनी एक रचना 'सक्कोसलचरिज' की अन्त्य-प्रशस्ति प्राकृत, अपभ्रश एवं हिन्दी भाषाओं पर असाधारण में उसका रचना-समाप्ति काल वि० सं० 1496 दिया पाण्डित्य, इतिहास एवं संस्कृति का तलस्पर्शी ज्ञान, है तथा उसमें अपनी पूर्ववर्ती कई रचनाओं के उल्लेख समाज एवं राष्ट्र को साहित्य, संगीत, कला एवं किये हैं एवं उन्हीं उल्लिखित रचनाओं की प्रशस्तियों राष्ट्र धर्म के प्रति जागरूक करने की क्षमता अन्यत्र में भी अपनी पूर्व-पूर्व-रचित रचनाओं के उल्लेख किये दुर्लभ है। हैं, जिनकी संख्या 18 है। इससे विदित होता है कि कवि वि० सं० 1496 के पूर्व ही एक विशाल साहित्य महाकवि का निवास-स्थल का प्रणयन कर चुका था, क्योंकि वि० सं० 1496 के रइधू के जन्मस्थान एवं जन्मतिथि विषयक स्पष्ट बाद ही उसकी मात्र पाँच रचनाएँ ही प्राप्त हैं। उल्लेख अभी तक प्रकाश में नहीं आ सके । किन्तु इस पर्वोक्त 18 ग्रंथों के परिमाण को देखते हए तथा उनके तथ्य के प्रचुर प्रमाण उपलब्ध हैं कि कवि की साहित्य प्रथम गुरु गुणकीत्ति भट्टारक वि० सं० 1455 के 1. धू-साहित्य का आलोचन स्मक परिशीलन (डा० राजाराम जैन) पृ. 44-45 । 2. मुक्कोसलचरिउ 4/23/1-3 ३०५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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