Book Title: Gopachal ka Ek Vismrut Mahakavi Raidhu
Author(s): Rajaram Jain
Publisher: Z_Tirthankar_Mahavir_Smruti_Granth_012001.pdf

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Page 9
________________ कृपा कीजिए 1214 कवि रइधू ने कमलसिंह की यह मार्मिक प्रार्थना स्वीकार कर उसके निमित्त 'सम्मतगुणणिहाणकव्व' नामक एक काव्य ग्रन्थ की रचना करदी । महाकवि का एक दूसरा भक्त था हरिसिंह साहू | उसकी तीव्र इच्छा थी कि उसका नाम चन्द्र विमान में लिखा जाय । अतः वह कवि से निवेदन करता है - "है मित्र, मुझ पर अनुरागी बनकर मेरी विनती सुन लीजिए एवं मेरे द्वारा इच्छित 'बलभद्र चरित' नामक रचना लिखकर मेरा नाम चन्द्र - विमान में अंकित करा दीजिए । " हरिसिंह की यह प्रार्थना सुनकर कवि ने कई कारणों से अपनी असमर्थता व्यक्त करते हुए तथा 'बलभद्र चरित' की विशालता का अनुभव करते हुए उत्तर दिया : घणएण भरइ को उवहि-तोउ । को फणि- सिरमणि पयडइ विणोउ ।। पंचाणण- मुहि को खिवइ हत्थु । विणु सुत्तें महि को रयइ बत्थु ॥ विणु-बुद्धिए तहँ कव्वहं पसारु । विरपितु गच्छमि केम पारु ॥ बलभद्र० 1/4/1.4 अर्थात् - "हे भाई, बलभद्र-चरित का लिखना सरल कार्य नहीं । उसके लिखने के लिए महान् साधना, क्षमता एवं शक्ति की आवश्यकता है । आप ही बताइये कि भला घड़े में समस्त समुद्र जल को कोई भर सकता है ? साँप के सिर से मणि को कोई ले सकता है ? प्रज्ज्वलित पंचाग्नि में कोई अपना हाथ डाल सकता है ? 14. सम्मतगुण ० 1 / 15/1-6. 15. बलहद्दचरिउ 1 /4/6-12, 16. बलहद्द० 1 /5 / 5-6. Jain Education International बिना धागे से रत्नों की माला कोई गूंथ सकता है ? बिना बुद्धि के इस विशाल काव्य की रचना करने में मैं कैसे पार पा सकूंगा ?" उक्त प्रकार से उत्तर देकर कवि ने साहू की बात को सम्भवतः टाल देना चाहा, किन्तु साहू बड़ा चतुर था । अत: ऐसे अवसर पर उसने वणिक्बुद्धि से कार्य किया । उसने कवि को अपनी पूर्व मंत्री का स्मरण दिलाते हुए कहा: " कविवर, आप तो निर्दोष काव्य रचना में धुरन्धर हैं, शास्त्रार्थ आदि में निपुण हैं, आपके श्री मुख में तो सरस्वती का वास है । आप काव्यप्रणयन में पूर्ण समर्थ हैं, अतः इच्छित - ग्रन्थ की रचना अवश्य ही करने की कृपा कीजिए । 18 अन्ततः कवि ने उक्त ग्रन्थ की रचना करदी | धू- साहित्य में वर्णित गोपाचल धू- साहित्य में गोपाचल का बड़ा ही समृद्ध वर्णन मिलता है । कवि ने उसकी उपमा स्वर्गपुरी, इन्द्रपुरी, एवं कुबेरपुरी से दी है, किन्तु प्रतीत होता है कि उसे इस तुलना से भी सन्तोष नहीं है, क्योंकि एक सन्तकहाकवि की दृष्टि में ज्ञान एवं गुरू ही सर्वोपरि होते हैं, भौतिक समृद्धि तो उनके समक्ष नगण्य है । अतः वह गोपाचल को 'नगरों का गुरू' अथवा 'पण्डित' घोषित करता है । वह कहता है: ३१३ महिवीढ़ि पहाणउ णं गिरिराणउँ । सुरह विमणि विभउ जणिउँ ॥ कउसीसह मंडिउ णं इहु । पंडिउ गोवायलु णामें भणिउँ ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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