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गोपाचल का एक विस्मृत महाकवि-रइधू |
डा. राजाराम जैन
भारतीय-वाङ्गमय के उन्नयन में जिन वरेण्य साधना का प्रमुख स्थल गोपाचल (ग्वालियर) दुर्ग था। साहित्यकारों ने अथक परिश्रम एवं अनवरत साधना उसने गोपाचल की महिमा का गान बड़े ही श्रद्धासमन्वित करके अपना उल्लेख्य योगदान किया है, उनमें महाकवि भाव से विस्तारपूर्वक किया है। उसके साहित्य में रइधू अपना प्रमुख स्थान रखते हैं। उनका अवतरण सामाजिक एवं सांस्कृतिक प्रसंगों में कई ऐसे वर्णन एवं एक ऐसे समय में हुआ था जब राजनीतिक विषमताओं शब्दावलियाँ प्राप्त हैं, जिनसे यही सिद्ध होता है कि एवं युद्ध-विभीषिकाओं से जन-जीवन जर्जर हो रहा था, उक्त कवि गोपाचल का निवासी था।। तलवारों और भालों की निरन्तर बौछारों से शान्ति भी शान्ति की खोज कर रही थी, तब रइध ने जन- काल-निर्णय मानस की वेदना का अनुभव किया और एक लोकनायक
महाकवि का जन्म कब एवं किस वर्ष हुआ, यह कवि के रूप में अपनी अमृतस्रोतस्विनी को प्रवाहित
जानकारी भी अभी तक अप्राप्त है, किन्तु कवि ने किया। उनकी रचनाओं का विषय-वविध्य, संस्कृत, अपनी एक रचना 'सक्कोसलचरिज' की अन्त्य-प्रशस्ति प्राकृत, अपभ्रश एवं हिन्दी भाषाओं पर असाधारण में उसका रचना-समाप्ति काल वि० सं० 1496 दिया पाण्डित्य, इतिहास एवं संस्कृति का तलस्पर्शी ज्ञान, है तथा उसमें अपनी पूर्ववर्ती कई रचनाओं के उल्लेख समाज एवं राष्ट्र को साहित्य, संगीत, कला एवं किये हैं एवं उन्हीं उल्लिखित रचनाओं की प्रशस्तियों राष्ट्र धर्म के प्रति जागरूक करने की क्षमता अन्यत्र
में भी अपनी पूर्व-पूर्व-रचित रचनाओं के उल्लेख किये दुर्लभ है।
हैं, जिनकी संख्या 18 है। इससे विदित होता है कि
कवि वि० सं० 1496 के पूर्व ही एक विशाल साहित्य महाकवि का निवास-स्थल
का प्रणयन कर चुका था, क्योंकि वि० सं० 1496 के रइधू के जन्मस्थान एवं जन्मतिथि विषयक स्पष्ट बाद ही उसकी मात्र पाँच रचनाएँ ही प्राप्त हैं। उल्लेख अभी तक प्रकाश में नहीं आ सके । किन्तु इस पर्वोक्त 18 ग्रंथों के परिमाण को देखते हए तथा उनके तथ्य के प्रचुर प्रमाण उपलब्ध हैं कि कवि की साहित्य प्रथम गुरु गुणकीत्ति भट्टारक वि० सं० 1455 के
1. धू-साहित्य का आलोचन स्मक परिशीलन (डा० राजाराम जैन) पृ. 44-45 । 2. मुक्कोसलचरिउ 4/23/1-3
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आसपास) के समय को देखने से यह विदित होता है थे। भारतीय वाङ्गमय के इतिहास में इतने विशाल कि कवि का जन्मकाल वि० सं० 1440 के आसपास साहित्य का प्रणेता एवं प्रायः सभी प्रमुख प्राच्यहोना चाहिए। इसी प्रकार कवि ने अपनी रचनाओं में भाषाओं का जानकार अन्य दूसरा कवि ज्ञात नहीं गोपाचल नरेश कीर्तिसिंह तोमर एवं भट्टारक शुभचन्द्र होता । रइधू विरचित साहित्य को वर्गीकृत सूची निम्न (माथुरगच्छ पुष्करगणीय) के उल्लेख विस्तार के साथ प्रकार है :किए हैं, जिनका कि समय वि० सं० 1536 के आसपास है । इन उल्लेखों तथा अन्य तथ्यों से यह स्पष्ट विदित
(क) चरित साहित्य होता है कि कवि उक्त समय तक साहित्य साधना करता
(1) हरिवंशचरिउ (14 सन्धियां एवं 302 रहा और इस प्रकार उसका कुल जीवनकाल अनुमानतः कडवक तथा 14 संस्कृत श्लोक); (2) बलहहचरिउ वि० सं० 1440 से 1536 के मध्य तक प्रतीत होता
(11 सं०, 240 कडवक एवं 11 सं० श्लोक) (3) मेहेसरचरिउ (13 सं०, 304 कडवक एवं 12 सं.
श्लोक), (4) जसहरचरिउ (4 सं०, 104 कडवक, वंश-परम्परा
4 सं० श्लोक); (5) सम्मइचरिउ (10 सं०, 246 रइधू-साहित्य की प्रशस्तियों में मधुकरी वृत्ति से.
र कडवक एवं 10 सं० श्लोक); (6) तिसट्टिमहाउनकी पारिवारिक-परम्परा का परिचय मिल जाता है।
र पुराणपुरिसआयारगुणालंकारु (50 सन्धियाँ, 1357
कडवक); (7) सिरिसिरिवालचरिउ (10 सं0 202 उसके अनुसार कवि के पितामह का नाम संघाधिप देवराज तथा पिता का नाम हरिसिंह था और माता
___ कडवक एवं 10 सं० श्लोक); (8) संतिणाहचरिउ
(सचित्र, अपूर्ण, मात्र आठ सन्धियां ही प्राप्त हैं); (9) का नाम था विजयश्री । रइधू तीन भाई थे-बाहोल, माहणसिंह एवं रइधू । रइधू की पत्नी का नाम सावित्री
पासणाहचरिउ (7 सं. 137 कडवक 7 सं. श्लोक) (10) था तथा पुत्र का नाम उदयराज ।' कवि ने उदयराज
जिमंधरचरिउ (13 सं०, 301 कडवक तथा 13 सं० के जन्म के दिन ही अपनी 'हरिवंशचरित' नामक रचना
श्लोक); (11) सुक्कोसलचरिउ (4 सं०, 74 कड़वक
एवं 4 सं० श्लोक); (12) धण्णकुमारचरिउ (4 सं०, समाप्त की थी।
74 कडवक एवं 4 सं० श्लोक); साहित्य साधना
(ख) आचार एवं सिद्धान्त साहित्य ____ महाकवि रइधू की साहित्य साधना गम्भीर विशाल (13) सावयचरिउ (6 सं०, 125 कडवक); एवं अद्भुत रही है । उन्होंने अपने जीवनकाल में तेईस (14) पुण्णासवकहा (13 सं०, 250 कडवक), (15) से भी अधिक ग्रन्थों की रचना की, जिनकी भाषा सम्मत्तगुणणिहाणकव्व (4 सं०, 104 कडवक), प्राकृत, अपभ्रंश एवं हिन्दी है। कई ग्रन्थों में अपने (16) अप्पसंवोहकव्व (3 सं058, कडवक), (17) आश्रयदाताओं के प्रति आशीर्वचन सूचक संस्कृत सिद्धन्तत्थसार (प्राकृत भाषा निवद्ध-13 अंक एवं श्लोकों की भी उन्होंने रचना की है। इन्हें देखकर 850 गाथाएँ); (19) वित्तसार (प्राकृत भाषा निबद्ध, प्रतीत होता है कि वे संस्कृत के भी अधिकारी विद्वान् 6 अंक, एवं 850 गाथाएं);
3. विशेष के लिए देखिए रइधू सा० का आ० परि० पृ० 116-120 4. वही, पृ० 35-40
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(ग) अध्यात्म एवं अन्य साहित्य
जिनमें समकालीन राजा, नगरसेठ, पूर्ववर्ती एवं (20) सोलहकारण जयमाला (27 पद्य);
समकालीन साहित्य एवं साहित्यकार तथा अन्य
राजनैतिक, सामाजिक एवं धार्मिक परिस्थितियों पर (21) दहलक्खणजयमाला (11 पद्य); (22) बारा
सुन्दर प्रकाश डाला है। इन प्रशस्तियों में गोपाचल भावना (हिन्दी, 37 पद्य) ।।
के मध्यकालीन इतिहास एवं संस्कृति की प्रचर अन्य ग्रन्थ अनुपलब्ध हैं। उक्त ग्रन्थों में से क्रमांक प्रामाणिक सामग्री उपलब्ध होती है। 8 एवं 9 के ग्रन्थ सचित्र हैं और मध्यकालीन चित्रकला
राजाओं में कवि ने समकालीन तोमरवंशी राजा के अद्भुत उदाहरण हैं । उपर्युक्त समस्त साहित्य
डूंगर सिंह, कीतिसिंह एवं प्रतापरुद्र चौहान के उल्लेख अद्यावधि अप्रकाशित है।
करते हुए उनका विस्तृत परिचय एवं कार्यकलापों का
सुन्दर वर्णन किया है। कवि के अनुसार उक्त तीनों रइधू-साहित्य को विशेषताएँ प्रशस्तियाँ
राजा शूरवीर एवं पराक्रमी होने के साथ-साथ सर्व धर्म रइधु-साहित्य की सर्वप्रथम विशेषता उसकी समन्वयी एवं साहित्य तथा कला-रसिक थे। गोपाचल विस्तृत प्रशस्तियाँ हैं । कवि ने अपने प्रायः प्रत्येक ग्रन्थ दुर्ग में डूंगरसिंह एवं कीतिसिंह ने राज्य की ओर से के आदि एवं अन्त में विस्तृत प्रशस्तियाँ अंकित की हैं, श्रेष्ठ मूर्तिकला के विशेषज्ञों को निमन्त्रित कर लगातार
पिसाबsamARRIISTRविदिमिरमालाराममायाकारयामजस्वाला उसमयागावरुदावालटाकारितोरिकवि मारियासराव बालस्वारागिरिबबानिकायबायोमबाहामा माणतिबदडवर पालामामाHिETराजबिपिछ कक्षा
जसहरचरिउ (मौसमावाद प्रति); सन्दर्भ- राजा यशोधर अपने मनोरंजन ग्रह में
5. सचित्र ग्रन्थों के परिचय की जानकारी हेतु हमारे द्वारा लिखित विस्तृत निबन्धों के लिए देखिए-जैन
सिद्धान्त भास्कर (आरा) 25/2/62-69 (सचित्र जसहरचरिउ के लिए) अनुसन्धान-पत्रिका (जन०. मार्च) 1973) प्रवेशांक पृ० 50-57, (सचित्र पासणाहचरित्र के लिए) तथा र इधू सा० का आ० परि०
पृष्ठ 551-552 (सचित्र सतिणाह चरिउ के लिए)। 6. रइधू सा० का आ० परि० पृ० 95-116
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33 वर्षों तक जैनमूर्तियों का निर्माण कराया था। longer and smaller size. On the south rart जनरल कनिंघम ने उक्त मूर्तिकला से प्रभावित होकर of it is a large size which may be about 40 लिखा है
feet in height. These figures are perfectly
naked without even a rag to cover the The (Jaina) Rock Sculptures of parts of generation. Adiva is for from Gwalior are unique in Northern India as being
being a mean place on the contarary, it is well for their number as for their gigantic
extremely pleasant. The greatee fault size.
consists in the idol figures all about it. I
directed these idols to be destroyed." प्रस्तुत प्रसंग में सुप्रसिद्ध इतिहासकार श्री हेमचन्द्र राय का निम्नकथन भी अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं :
रइधू के अनुसार प्रतापरुद्र चौहान चन्द्रवाडपट्टन
का राजा था, जिसने अपने पराक्रम से मुस्लिम ___He (Dungar Singh) was a great patron
आक्रान्ताओं के छनके छुड़ा दिये थे और अपना राज्य of the Jaina faith and held the Jainas in high esteem. During his eventful reign, the work
विस्तार किया था । उसके राज्य में सभी धर्मों के of carving Jaina images on the rocks of the लोग सौमनस्य एवं सौहार्दपूर्वक निवास करते थे। Fort of Gwalior was taken in hand; it was राज्य की समृद्धि अटूट थी । प्रतापरुद्र के एक अमात्य brought to completion during the reigm of कुन्थूदास ने चन्द्रवाडपट्टन में हीरे, मोती, माणिक्य his successor Raja Karni Singh (or Kirti आदि की कई सन्दर जैनमतियाँ बनवाकर बडे ही Singh). All around the base of the Fort,
___ समारोह के साथ उनकी प्रतिष्ठा कराई थी।
.. the magnificent Statues of the Jaina pontiffs antiquity gaze from their tall niches like mighty Guardians of the great Fort and its
रइधू-साहित्य की प्रशस्तियों के अनुसार गोपाचल surrounding landscape. Babur was much एवं चन्द्रवाडपट्टन में साहित्यका का सम्मान राज्य annoyed by these rock-sculptures as to issue के सर्वश्रेष्ठ सम्मानों में श्रेष्ठतम माना जाता था। orders for their destruction in 1557 A. D. रइधू ने जब गोपाचल में 'सम्म सगुणणिहाणक ब्व' नामक
अपना काव्यग्रन्थ समाप्त किया था, तब कवि को उक्त सम्राट बाबर के मूर्ति तोड़नेवाले उक्त आदेश का
ग्रन्थ के साथ ही ऐरावत के सदृश सुन्दर हाथी पर जनरल कनिधम ने अंग्रेजी अनुवाद इस प्रकार किया है.-8
विराजमान कराकर नगर भर में घुम या गया था ।10
..They have hewn the solid rock of इसी प्रकार चन्द्रवाडपट्टन में जब कवि ने this Adiva and sculptured out of it idols of 'पुण्णसवकहा' नामक ग्रन्थ की समाप्ति की, तब
Murry's Northern India. Pages 381-2 8. Murry's Northern India. Pages 3819. पुण्णासव कहा 15/6/-11. 10. सम्मत्त गुण० 1/5/6-10.
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अगले ही दिन उसे हाथी पर बैठाकर नगर परिक्रमा साधन सम्पन्न होने के कारण ये नवीन-नवीन प्रतिभाओं कराकर उसका राजकीय सम्मान किया गया था।" की खोजकर उन्हें एकत्रित करते थे तथा बत्ति आदि
देकर उन्हें साहित्य के क्षेत्र में प्रशिक्षित करते थे । यही उक्त घटनाओं से यह विदित होता है कि गोपाचल कारण है कि गोपाचल में वि० सं० 1440 से 1540 एवं चन्द्र वाडपट्टन की राज्य परम्पराएं आदर्श थी और तक लगभग 100 वर्षों में जितना साहित्यिक कार्य सचमुच ही रइधु द्वारा उल्लिखित उक्त तीनों राजा हुआ है, उतना शायद ही अन्यत्र हआ हो। इन सौ सम्राट अशोक एवं राजर्षि कुमारपाल की कोटि में वर्षों में आक्रान्ताओं द्वारा पिछले वर्षों में साहित्य की आते हैं।
जो होलियाँ जलाई गई थीं, तथा मूत्तियों का विध्वस
किया गया था, उसकी पूर्ति का अथक प्रयास किया भट्टारक
गया। रइधू-साहित्य की प्रशस्तियों में कई भट्टारकों के उल्लेख मिलते हैं। इन भट्टारकों ने गोपाचल में सदैव रइधु-प्रशस्तियों में उल्लिखित भट्टारकों को दो ही साहित्यिक एवं सांस्कृतिक वातावरण उत्पन्न कर वर्गों में विभक्त कर सकते हैं -- (1) रइध-पर्व-भट्टारक स्वस्थ-समाज के निर्माण में अमूल्य योगदान किया है। एव (2) र इघु-समकालीन भट्टारक । पूर्ववर्ती ब्रज एवं बुन्देली का जो भी साहित्य निर्मित हुआ, उसके भट्टारकों में देवसेनगणि, विमलसेन, धर्मसेन, भावसेन लिये मूल प्रेरणा इन भट्टारकों से मिली । धार्मिक एवं सहस्त्रकीति तथा समकालीन भट्टारकों में गुणकीति साधना के साथ-साथ इनमें संगठन की प्रवृत्ति भी यग:कत्ति पाल्ह ब्रम्ह, खेमचन्द्र एवं कुमारसेन के अदभूत थी। राजाओं एवं नगरसेठों को प्रभावित कर नामोल्लेख मिलते हैं। ये सभी भटटारक काष्ठासंघ उनसे आर्थिक सहायता लेने में भी ये पट थे । अत: माथुरगच्छ एवं पुष्करगण शाखा से सम्बन्ध रखते हैं।
TARAण्मासमक्षा समानारामनार
पकार पनि
जसहरचरिउ; सन्दर्भ-राजा यशोधर अपने प्रमुख मत्रियों से गम्भीर विचार विमर्श कर रहे हैं।
जसहरचरिउ, मौजमावाद, जयपुर प्रति
11. पुण्णासवकहा 13/12/3.
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इन सभी भट्टारकों ने साहित्य एवं कला के क्षेत्र में कांचीसंधे माथुरान्वयो पुस्करगण भट्टारक श्री गणकीति महत्वपूर्ण कार्य किये ।।
देव त पदे यत्यःकीर्तिदेवा प्रतिष्ठाचार्य श्री पंडित रधु
तेपं आमाए अग्रोतवंशे मोद्गल गोत्रासा ।। धुरात्मा भट्टारक शुभकीति ने अपने गुरु भट्टारक कमल तस्य पुत्रः साधु भोपा तस्या भार्या नाल्ही ।। पुत्र प्रथम कीति के आदेश से सुवर्णगिरि (आधुनिक सोनागिरि, साधु क्षेमसी द्वितीय साधु महाराजा तृतीय असराज झाँसी) पर एक भट्टारकीय पट्ट की स्थापना कर चतुर्थ धनपाल पञ्चम साघु पाल्का । साधु क्षेमसी स्वयं ही उसका कार्य संचालन किया था तथा उसे भार्या नोरादेवी पुत्र ज्येष्ठ पुत्र भधायि पति कौल..।। प्राच्यविद्या का प्रमुख केन्द्र बनाया था। वहां के विशाल भ-भार्या च ज्येष्ठस्त्री सरसूतीपूत्र मल्लिदास द्वितीय शास्त्र भण्डारों में आज भी महत्वपूर्ण सामग्री अपने भार्या साध्वीसरा पुत्र चन्द्रपाल क्षेमसीपुत्र द्वितीया साधु प्रकाशन की राह देख रही है तथा कई ऐतिहासिक श्री भोजराजा भार्या देवस्यपत्र पूर्णपाल । एतेषां गुत्थियों को सुलझाने के लिए उत्कण्ठित है।
मध्येश्री ।। त्यादि जिनसंघाधिपति 'काला' सदा
प्रणमति । भट्टारक कमलकीति के एक अन्यतम शिष्य मण्डलाचार्य श्री रत्नकीति ने वि० सं० 1516 में उक्त लेख में रेखांकित पद विचारणीय हैं। यह बडवानी (बावनगजा-पश्चिम निमाड़) स्थित 84 फीट तो सर्वविदित ही है कि गोपाचल (ग्वालियर) में वि० ऊँची आदिनाथ तीर्थ कर की मूर्ति के आसपास एक सं० 1497 में तोमरवंशी राजा इंगरसिंह का राज्य वसति का जीर्णोद्वार कराया था । ३ ये उल्लेख वस्तुत: था। उनके समय में गोपाचल काष्ठासंघ माथुरान्वय बड़े ही महत्वपूर्ण हैं और मध्यप्रदेश के पुरातत्व की एवं पुष्करगणीय भट्टारकों का गढ़ था। उनमें भट्टारक सद्धि के लिए अमूल्य निधि हैं।
गुणकीर्ति के शिष्य यश.कीति तथा उनके शिष्य महाकवि
रइधु ने डूंगर सिंह के आग्रह से उनके दुर्ग में रहकर गोपाचल दर्ग में स्थित 57 फीट ऊंची आदिनाथ ही साहित्य साधना की थी। महाकवि के बालसखा एवं की मूर्ति पर भी एक लेख अंकित है । स्व. श्री
डूगरसिंह के अमात्य कमलसिंह ने दुर्ग में 57 फीट राजेन्द्रलाल हाड़ा ने कठोर परिश्रम कर उसका अध्ययन ऊँची आदिनाथ की मूर्ति का निर्माण कराया था, किया था, किन्तु महाकवि रइधू कृत सम्मतगुण- जिसकी प्रतिष्ठा डूगरसिंह की सहायता से कमलसिंह गिहाणकव्व की आद्यप्रशस्ति का अध्ययन एवं मूति ने रइध द्वारा कराई थी। लेख से उसकी तुलना करने से श्री हाड़ा का अध्ययन पर्याप्त भ्रमपूर्ण सिद्ध होता है। उनके पठनानुसार मति
उक्त वक्तव्य के रेखांकित पदों की, मूर्तिलेख के लेख निम्न प्रकार है
रेखांकित पदों से तुलना करने पर संगति ठीक ही
बैठ जाती है। उक्त संगति का मूलाधार रइधु कृत श्री आदिनाथायनमः । संवत् 1497 वर्षे वैशाष 'सम्मत्तगुणणिहाणकव्व' ही है, जिसे रइधू ने कमलसिंह
7 के पुनर्वसुनक्ष ने श्री ‘गोपाचल दुर्गे' के आश्रय में रहकर उसके स्वाध्याय हेतु तैयार किया महाराजाधिराज श्री डुग..." संवर्तमानो श्री था तथा उसने उसकी प्रशस्ति में कमलसिंह का वंशवृक्ष,
12. विशेष के लिए देखिए रइधू, साहित्य का आलोचनात्मक परिशीलन पृ० 69-83. 13. दे० बड़वानी भित्तिलेख.
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डूंगर सिंह का विस्तृत वर्णन एवं गोपाचल की राजनैतिक एवं सांस्कृतिक परिस्थितियों का सुन्दर चित्र खींचा है। मूर्तिलेख में अंकित सामग्री निम्न प्रशस्ति में दृष्टव्य है : ·---
गोपाचल डुंगरराय रज्जि । सिव ऊसइणा विहिय कज्जि || तहि णिव सम्मानें तोसियंगु । बुहँ बिहिउ जं णिच्य संगु ॥ करुणावल्ली वण-धवल- कंदु | सिरिअरवाल-कुल- कुमुय चंदु ॥ सिरि भोषाणामें हुवउ साहु | संपत्त जेण धम्में जिलाहु || तहु णाल्हाही णामेण भज्ज । अइसावहाण सा पुण्णकज्ज || तहुणंदण चारि गुणोह वास । ससिणिह जसभर पूरिय दिसास ॥
मसीहु पसिद्धउ महि गरिछु । महराजु महामइ तहु कणिट्टु | असराज दुहिय जण आसकर । पाल्हा कुल-कमल- वियास सुरु || एहु गरुवउ जो खेमसीहु । वर्णियउ एच्छ भवभमण वीहु || तहु णिउरादे भामिणि उत्त । गुरु देव सच्छ-पय-कमल- भत्त || तहि उवरि उवण्ण विणिणपुत्त । विष्णाण - कला-गुण-से णि जुत्त ॥ पढ़मउ संघाविउ कमलसीहु । जो पलु महीयल सिवसमीहु || णामेण सरासइ तहु कलत्त । वीई जि ससिपिय पाय भत्त ॥ चउविह दाणें पीणिय सुपत्त । अणि विरइय जिणणाहजत्त ॥
तहुणदणु णामें मल्लिदासु । सो संपत्तउ सुहगइ णिवासु ॥ संघाहिव कमलहु लहुउ भाउ । णामेण पसिद्धउ भोयराउ || तहु भामिणि देवइ णाम उत्त । विहु पुतहि सा सोहइ सउत्त || णामेण भणिउ गुरु चंदसेणु । पुणु पुण्णपालु लहुवउ अरेणु ॥
घत्ता
इय परियण जुत्तउ एच्छणिरु । कमलसीहु संघाहिव चिरणंदउ ||
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एच्छु पसणु मणु णिय । दुहिय जण आइ
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सम्मत ० 4/35
इस प्रकार महाकवि रइधू के 'सम्मतगुणणिहाणकन्य' की प्रशस्ति को सम्मुख रखकर उक्त मूर्तिलेख के अशुद्ध पढ़े गये पाठों को सरलता से शुद्ध किया जा सकता है ।
गोपाचल के भष्ठिजन
रइधू ने अपनी प्रशस्तियों में प्रसंगवश कई नगर श्रेष्ठियों की विस्तृत चर्चा की है। इनमें से कुछ श्र ेष्ठिजन रइथू की कवित्वशक्ति से अत्यन्त प्रभावित होकर उन्हें अपना गुरु मानकर चलते थे तथा वे निरन्तर ही अपने स्वाध्याय हेतु उनसे काव्यग्रन्थ लिखने का आग्रहभरा निवेदन किया करते थे । यहाँ दो-एक उदाहरण प्रस्तुत कर यह दर्शाने का प्रयास किया जायगा कि मध्यकालीन नगर श्रेष्ठिजन ऐश्वर्य और भोगों के बीच रहते हुए भी कितने साहित्य रसिक एवं साहित्यकारों को मुकुटमणि के समान समझते थे । कवि रइधू के एक भक्त थे - कमलसिंह संघवी, जो तोमर राजा डूंगरसिंह
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के अमात्य थे तथा ऐश्वर्य में किसी भी राजा से कम न काव्यरूपी एक भी सून्दर मणि नहीं है। उसके बिना थे । वे कवि से कहते हैं "हे कविवर, शयनासन, हाथी, मेरा सारा ऐश्वर्य फीका-फीका लगता है। हे काव्यरूपी धोडे, ध्वजा, छत्र, चमर, सुन्दर-सुन्दर रानियाँ, रथ, रत्नों के रत्नाकर, तुम तो मेरे स्नेही बालमित्र हो, सेना, सोना-चाँदी, धन-धान्य, भवन, सम्पत्ति, कोष, तुम्हीं हमारे सच्चे पुण्य-सहायक हो । मेरे मन की इच्छा नगर, देश, ग्राम, बन्धु-बान्धव, सुन्दर सन्तान, पुत्र, को पूर्ण करनेवाले हो । इस नगर में बहुत से विद्वज्जन भाई, आदि सभी मुझे उपलब्ध हैं। सौभाग्य से किसी रहते हैं, किन्तु मुझे आप जैसा कोई भी अन्य सुकवि भी प्रकार की भौतिक-सामग्री की मुझे कमी नहीं, किन्तु नहीं दिखता । अत: हे कविश्रेष्ठ, मैं अपने हृदय की इतना सब होने पर भी एक वस्तु का अभाव मुझे गाँठ खोलकर आपसे सच-सच कह रहा है कि आप मेरे निरन्तर खटकता रहता है, और वह यह कि मेरे पास निमित्त एक काव्य की रचना कर मुझ पर अपनी महती
मोगराया डायनास्वाद मलनसावकलाटावडामाशयमानता भावानीगादासर मिला किमडानियावासादायक जनावरामवासना कवनपद्धामायावती तोपिदासान।
RE
বঙ্গালোচনা সমাজের এই
राविकमा साश्रया सरकारालकाला
जबामालामालवाSIS
रईधूकृत पासणाह चरिउ प्रतिलिपि काल-वि० स० १४९३ सन्दर्भ-राजा अरविन्द अपने मन्त्री वायभूति से उसके भाई कमठ के चरित्र के विषय में पछ रहा है
तथा कमठ को तत्काल ही देश निर्वासन की सलाह कर रहा है।
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कृपा कीजिए 1214 कवि रइधू ने कमलसिंह की यह मार्मिक प्रार्थना स्वीकार कर उसके निमित्त 'सम्मतगुणणिहाणकव्व' नामक एक काव्य ग्रन्थ की रचना करदी ।
महाकवि का एक दूसरा भक्त था हरिसिंह साहू | उसकी तीव्र इच्छा थी कि उसका नाम चन्द्र विमान में लिखा जाय । अतः वह कवि से निवेदन करता है - "है मित्र, मुझ पर अनुरागी बनकर मेरी विनती सुन लीजिए एवं मेरे द्वारा इच्छित 'बलभद्र चरित' नामक रचना लिखकर मेरा नाम चन्द्र - विमान में अंकित करा दीजिए । " हरिसिंह की यह प्रार्थना सुनकर कवि ने कई कारणों से अपनी असमर्थता व्यक्त करते हुए तथा 'बलभद्र चरित' की विशालता का अनुभव करते हुए उत्तर दिया :
घणएण भरइ को उवहि-तोउ । को फणि- सिरमणि पयडइ विणोउ ।। पंचाणण- मुहि को खिवइ हत्थु । विणु सुत्तें महि को रयइ बत्थु ॥ विणु-बुद्धिए तहँ कव्वहं पसारु । विरपितु गच्छमि केम पारु ॥
बलभद्र० 1/4/1.4
अर्थात् - "हे भाई, बलभद्र-चरित का लिखना सरल कार्य नहीं । उसके लिखने के लिए महान् साधना, क्षमता एवं शक्ति की आवश्यकता है । आप ही बताइये कि भला घड़े में समस्त समुद्र जल को कोई भर सकता है ? साँप के सिर से मणि को कोई ले सकता है ? प्रज्ज्वलित पंचाग्नि में कोई अपना हाथ डाल सकता है ?
14. सम्मतगुण ० 1 / 15/1-6. 15. बलहद्दचरिउ 1 /4/6-12, 16. बलहद्द० 1 /5 / 5-6.
बिना धागे से रत्नों की माला कोई गूंथ सकता है ? बिना बुद्धि के इस विशाल काव्य की रचना करने में मैं कैसे पार पा सकूंगा ?"
उक्त प्रकार से उत्तर देकर कवि ने साहू की बात को सम्भवतः टाल देना चाहा, किन्तु साहू बड़ा चतुर था । अत: ऐसे अवसर पर उसने वणिक्बुद्धि से कार्य किया । उसने कवि को अपनी पूर्व मंत्री का स्मरण दिलाते हुए कहा: " कविवर, आप तो निर्दोष काव्य रचना में धुरन्धर हैं, शास्त्रार्थ आदि में निपुण हैं, आपके श्री मुख में तो सरस्वती का वास है । आप काव्यप्रणयन में पूर्ण समर्थ हैं, अतः इच्छित - ग्रन्थ की रचना अवश्य ही करने की कृपा कीजिए । 18 अन्ततः कवि ने उक्त ग्रन्थ की रचना करदी |
धू- साहित्य में वर्णित गोपाचल
धू- साहित्य में गोपाचल का बड़ा ही समृद्ध वर्णन मिलता है । कवि ने उसकी उपमा स्वर्गपुरी, इन्द्रपुरी, एवं कुबेरपुरी से दी है, किन्तु प्रतीत होता है कि उसे इस तुलना से भी सन्तोष नहीं है, क्योंकि एक सन्तकहाकवि की दृष्टि में ज्ञान एवं गुरू ही सर्वोपरि होते हैं, भौतिक समृद्धि तो उनके समक्ष नगण्य है । अतः वह गोपाचल को 'नगरों का गुरू' अथवा 'पण्डित' घोषित करता है । वह कहता है:
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महिवीढ़ि पहाणउ णं गिरिराणउँ । सुरह विमणि विभउ जणिउँ ॥ कउसीसह मंडिउ णं इहु । पंडिउ गोवायलु णामें भणिउँ ॥
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पास० 1/2/15-16
वही 1/3/17-18 अर्थात् “पृथ्वी-मण्डल में प्रधान, गिरिराज (सुमेरु) अर्थात् "सुख-समृद्धि एवं यश के लिए वह गोपाचल के समान विशाल, देवताओं के मन में भी विस्मय उत्पन्न रत्नाकर के समान आकर था, बुधजनों के समूहों से करनेवाला, भवन-शिखरों से मण्डित तथा पृथ्वी-मण्डल युक्त वह नगर मानों इन्द्रपुरी ही था । शास्त्रार्थों से के श्रेष्ठ पण्डित के समान गोपाचल नामक एक नगर सुशोभित तथा जन-मन को आकर्षित करनेवाले सर्वकहा गया है।"
श्रेष्ठ नगरों का मानों यह गूरू ही था।"
सुहलच्छि जसयरु ण रयणावरु। बुहयण जुहु णं इंदउरु ॥ सत्थत्थहिँ सोहिउ जण मणु । मोहिउ णं वरणयरहँ एहु गुरु ॥
वहाँ के सामाजिक-जीवन का भी वह सुन्दर वर्णन करता है । कवि के अनुसार वहाँ के आबाल-वृद्ध, नरनारी दुर्व्यसनों से कोसों दूर थे । प्रातःकालीन क्रियाओं से निवृत्त होकर वहाँ की नारियाँ सुन्दर वस्त्र धारणकर
Youmya यदीमावविदटाकियसमाशोपालपादिसमक्षयमासजमधमानाभाट पुनियागासालानत मिदेवानामविकासजस्टरका कलायतितरविरहिटका मामिलावरफरादिशातिहमामालिनाल
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महाकवि रईधकृत अपभ्रश का एक अद्यावधि अप्रकाशित दुर्लभ ग्रन्थ, "निसट्ठि महापुराणपुरिस आयाद
गुणालंकार'' के अन्तिम पृष्ठ की फोटो कापी
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पवित्र मन से प्रभाती-गीत गाती हुई जब देवालयों की
जिह मइमत्तु गइंदु णि रंकुसु । ओर जाती थीं, तब नगर का सारा वातावरण सात्विक
जं भावइ तं बोलइ जिह सिसु ॥ एवं धर्म-महिमापूर्ण हो जाता था। कुलवधुएं सत्पात्रों
जायंधु वि जह मग्गु ण जाणइ । को भोजन कराए बिना भोजन नहीं करती थीं, तथा
चउदिसु धाणमाणु दुहू माणइ ।। दीन-दुखी एवं अनाथों के प्रति वे निरन्तर दयालू रहती
तिहि राणउ लज्जा मेल्लिवि । थीं।17
जं रुच्चइ तं चवइ उवेल्लिवि ।। ___ एक ओर जहाँ रइधू-वर्णित महिलाएं इतनी उदार
वही02/5/8-11 थीं, वहीं दूसरी ओर धर्म-विरुद्ध कार्यों का घोर विरोध करनेवाली, सत्साहसी एवं वीरांगनाएँ भी वहाँ थीं।
अर्थात् "जिस प्रकार मदोन्मत्त हाथी निरंकुश हो कवि ने अपने 'सिरिसिरि-वालकहा' नामक ग्रन्थ में जाता है, उसी प्रकार हमारा पिता भी निरंकुश हो गया उज्जयिनी की राजकुमारी मयणासुन्दरी का उल्लेख है । अज्ञानी बच्चों के समान ही जो मन में आता है, करते हुए बताया है कि राजा प्रभूपाल ने किस प्रकार सो बोलता है। जिस प्रकार जन्मान्ध व्यक्ति मार्ग नहीं मयणासुन्दरी की कला-विद्याओं की कुशलता से प्रसन्न जानता और चारों दिशाओं में दौड़ता हुआ दुःख-भाजक होकर उसे स्वयं ही अपने योग्य वर के चुनाव कर लेने बनता है, ठीक उसी प्रकार यह भी मान-मर्यादा छोड़का आदेश दिया ।18 किन्तु मयणासुन्दरी इसे भारतीय- कर जो मन में आता है, वही करता है और बोलता परम्परा के विपरीत होने के कारण आपत्तिजनक मान- है।" इसके बाद वह अपने पिता को निर्भीकता के साथ कर उसका घोर विरोध करती है । कवि ने इस प्रसग उत्तर देती हुई कहती है :की चर्चा पर्याप्त विस्तार के साथ की है। प्रतीत होता है कि मयणासुन्दरी के माध्यम से कवि ने वहाँ के
भो ताय-ताय-पइँ णिरु अजुत्तु । नारी वर्ग के प्रति अपनी हार्दिक श्रद्धांजलियाँ अर्पित की
जंपियउ ण मुणियउ जिणहु सुत्तु ।। वर-कुलि उवण्ण जा कण्ण होइ ।
सालज्ज ण मेल्लइ एच्छ लोय ॥ उक्त प्रसग के अनुसार पिता के विवाह सम्बन्धी
वादाववाउ नउ जुत्तु ताउ । प्रस्ताव सुनकर मयणासुन्दरी विचार करती है :
तहँ पुणु तुअ अवखवमि णिसुणि राउ।
विह-लोय-विरुद्धउ एहु कम्मु । कुलमग्गु ण याणइ अलियभासि ।
जं सुव सइंवरु णिण्हइ सुछम्मु॥ नियगेह आणइ अवजसह-रसिरा ॥
पइँ मण इच्छइ किज्जइ विवाहु । सिरिवाल0 2/4/8
तो लोय सुहिल्लउ इय पवाहु ॥ अर्थात् यह (मेरा पिता) कुल-परम्पराओं को
वही० 2/6/5 जानता नहीं, वह असत्यभाषी है और अब अपने घर में अर्थात् “हे पिताजी, आपने जिनागम-सूत्रों के अपयशों को ला रहा है।
विरुद्ध ही मुझे अपने आप पति के चुनाव कर लेने का 17. सम्मत्तगुण. 1/4. 18. सिरिवाल. 2/4/5.
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आदेश दिया है । किन्तु जो कन्याएं कुलीन होती हैं, वे कभी भी ऐसा निर्लज्जता का कार्य नहीं कर सकतीं। हे पिताजी, इस विषय में मैं वाद-विवाद नहीं करना चाहती । इसलिए, मेरी प्रार्थना ध्यानपूर्वक सुनें । आपका यह कार्य लोक - विरुद्ध होगा कि आपकी कन्या स्वयंवर करके अपने पति का निर्वाचन करे । अतः मुझसे कहे बिना ही आपकी इच्छा जहाँ हो, वहीं पर मेरा विवाह कर दें......
भरत वाक्य
-साहित्य की यह विशेषता है कि उसके प्रायः सभी ग्रन्थों में विस्तृत भरत - वाक्य भी उपलब्ध होते हैं । उनके मूल में कवि के अन्तस् का उज्ज्वल रूप ही प्रतिभाषित होता है । कवि हृदय लोकमंगल की कामना से ओतप्रोत है । उसकी अभिलाषा है कि राजा कल्याणमित्र बने, प्रजा उसे अपना पिता समझे, राजा भी उसे अपनी सन्तति के समान स्नेह करे । समस्त आधियाँ एवं व्याधियाँ नष्ट हों । ऋतुएँ समयानुसार सुफल दें। सर्वत्र सुख-सन्तोष एवं शान्ति का साम्राज्य हो । कवि कहता है :
णिखद्दउ णिवसउ सयलुदेसु । पयपालउ दउ पुणु णरे ॥ जिणंसासणु गंदउ दोसमुक्कु । मुणिगण णंदउ तहिँ विसय चुक्कु ॥ द सावययण गलियपाव । जेणिसुनहिं जीवाजीव भाव || गंदउ महि णिरसिय असुहुकम्मु । जो जीवदयावरु परमधम् ॥
घत्ता
मच्छरमयहीणउँ सत्यपवीणउँ । पंडिययणु णंदउ सुचिरु ॥
परमुण गहणायरु वयणियभायरु । जिणपयपयरुह णबिय सिरु ॥
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पास 7/11
अर्थात् “सम्पूर्ण देश उपद्रवों से रहित रहे, नरेश प्रजा का पालन करता हुआ आनन्दित रहे । जिन शासन फले-फूले । निर्दोष मुनिगण विषय-वासना से दूर रहकर आनन्दित रहें । जो श्रावकगण जीव-अजीव आदि पदार्थों का श्रवण करते हैं, बे पापरहित होकर आनन्द से रहें ।"
दूसरों के गुण ग्रहण करनेवाले, व्रत एवं नियमों का आचरण करनेवाले, मात्सर्य मद से रहित एवं शास्त्र में प्रवीण पण्डितगण चिरकाल तक आनन्द करें एवं सभी जन जिनेन्द्र के चरण-कमलों में नत मस्तक रहैं ।"
s - साहित्य में प्रयुक्त आधुनिक भारतीय भाषाओं के
शब्द
महाकवि रघु यद्यपि मूलतः अपभ्रंश कवि हैं किन्तु उनके साहित्य में ऐसी शब्दावलियां भी प्रयुक्त हैं जो आधुनिक भारतीय भाषाओं की शब्दावलियों से समकक्षता रखती हैं। उदाहरणस्वरूप यहाँ कुछ शब्दों को प्रस्तुत किया जाता है :
:--
टोपी ( जसहर 1 /5 / 7), ढोर (अप्प० 1 /4/2), चोजु (आश्चर्य, सुक्को० 1 /6/3), साला - साली (अप्प० 3/4 / 2), रसोइ ( सुक्को ० 4 / 5) गड्डी = गाड़ी, ( घण्ण० 2 / 7 ), गाली ( अप्प ० 1 / 8 ), जंगल ( अप्प ० 2 / 3 / 1 ), पोटली ( घण्ण० 2/6/4), वुक्कड = बकरा - धण्ण० 2/7/5), थट्ट = भीड़ सम्मइ० 1/17/4- खट्ट = खाट - धण्ण० 2 / 14 / 8 - सुत्त - सूतना = सोना, 3/15/3), पटवारी ( धण्ण० 4/20/5), वक्कल = बकला= • छिलका - सुक्को ० 2/5/12), ढिल्ल = ढीला - अप्प० 1 / 12 / 6), पुराना (अप्प० 1 / 19 / 3), झूठे = झगड़े ( अप्प० 1 / 20 / 5 ), अंगोछा = धोती, ( सम्मत्त० 5 / 10 / 13 ) मुग्गदालि = मूंग
धण्ण ०
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________________ की दाल (हरिवंश० 4/7/8), पौड़ा गन्ना, (पास० दीप को प्रज्ज्वलित कर माँ भारती के श्रीचरणों को 6/1/6) लइगउ=लेगया (अप्प० 3-8-10) मामा आलोकित किया है / उसने विविध आक्रमणों से जर्जर मामा (हरिबंस० 4/8/6), कप्पड़= कपड़ा (अप्प० मालवभूमि के गिरते गौरव को अपनी समर्थ-लेखनी से 1/12/5), पैज =प्रतिज्ञा, (पृण्ण० 3/4/7), कुकुर उन्नतकर उसके पद को पुनः प्रतिष्ठित किया है तथा पुण्णा० (12/25/11) खाजा (पुण्णा० 1/10/5) अन्धकार में विलीन होते हुए उसके कई ऐतिहासिक अंथउ = सूर्यास्त पूर्व का भोजन, (पुण्णा० 12/3/4) तथ्यों को अपनी प्रशस्तियों के माध्यम से प्रकाशित चुल्लू (पुण्णा० 1/14/7), साँकल (पुण्णा० 1/3/4), किया है। निःस्सन्देह ही रइधू-साहित्य मालव प्रदेश का मोल (पुण्णा 5/1/10), देहली (पुण्णा० 8/2/8), गला ही नहीं समग्र भारतीय-वाङ्गमय का भी एक स्वर्णिम (पुष्णा० 13/4/12), तलवर=कोतवाल, (पुग्णा० अध्याय है। उसने शिक्षा जगत् का महान् उपकार किया 9/7/10) आदि ऐसे शब्द हैं, जो आज भी बुन्देली, है। अतः गोपाचल के इस वरेण्य कवि के अप्रकाशित बघेली, ब्रज, भोजपूरी, अवधी एवं पंजाबी में प्रयुक्त साहित्य को प्रकाशदान देने से ही म०प्र० उसके ऋणों होते हैं। से उऋण हो सकेगा और इसी प्रकार रइधू के प्रति रचनात्मक समर्थ श्रद्धांजलियाँ भी समर्पित की जा रइधू साहित्य का महत्व सकेंगी। इस प्रकार महाकवि रइधू ने विविध भाषाओं एवं साहित्यिक-शैलियों में एक विशाल साहित्य रूपी भास्कर 00