Book Title: Gopachal ka Ek Vismrut Mahakavi Raidhu Author(s): Rajaram Jain Publisher: Z_Tirthankar_Mahavir_Smruti_Granth_012001.pdf View full book textPage 5
________________ अगले ही दिन उसे हाथी पर बैठाकर नगर परिक्रमा साधन सम्पन्न होने के कारण ये नवीन-नवीन प्रतिभाओं कराकर उसका राजकीय सम्मान किया गया था।" की खोजकर उन्हें एकत्रित करते थे तथा बत्ति आदि देकर उन्हें साहित्य के क्षेत्र में प्रशिक्षित करते थे । यही उक्त घटनाओं से यह विदित होता है कि गोपाचल कारण है कि गोपाचल में वि० सं० 1440 से 1540 एवं चन्द्र वाडपट्टन की राज्य परम्पराएं आदर्श थी और तक लगभग 100 वर्षों में जितना साहित्यिक कार्य सचमुच ही रइधु द्वारा उल्लिखित उक्त तीनों राजा हुआ है, उतना शायद ही अन्यत्र हआ हो। इन सौ सम्राट अशोक एवं राजर्षि कुमारपाल की कोटि में वर्षों में आक्रान्ताओं द्वारा पिछले वर्षों में साहित्य की आते हैं। जो होलियाँ जलाई गई थीं, तथा मूत्तियों का विध्वस किया गया था, उसकी पूर्ति का अथक प्रयास किया भट्टारक गया। रइधू-साहित्य की प्रशस्तियों में कई भट्टारकों के उल्लेख मिलते हैं। इन भट्टारकों ने गोपाचल में सदैव रइधु-प्रशस्तियों में उल्लिखित भट्टारकों को दो ही साहित्यिक एवं सांस्कृतिक वातावरण उत्पन्न कर वर्गों में विभक्त कर सकते हैं -- (1) रइध-पर्व-भट्टारक स्वस्थ-समाज के निर्माण में अमूल्य योगदान किया है। एव (2) र इघु-समकालीन भट्टारक । पूर्ववर्ती ब्रज एवं बुन्देली का जो भी साहित्य निर्मित हुआ, उसके भट्टारकों में देवसेनगणि, विमलसेन, धर्मसेन, भावसेन लिये मूल प्रेरणा इन भट्टारकों से मिली । धार्मिक एवं सहस्त्रकीति तथा समकालीन भट्टारकों में गुणकीति साधना के साथ-साथ इनमें संगठन की प्रवृत्ति भी यग:कत्ति पाल्ह ब्रम्ह, खेमचन्द्र एवं कुमारसेन के अदभूत थी। राजाओं एवं नगरसेठों को प्रभावित कर नामोल्लेख मिलते हैं। ये सभी भटटारक काष्ठासंघ उनसे आर्थिक सहायता लेने में भी ये पट थे । अत: माथुरगच्छ एवं पुष्करगण शाखा से सम्बन्ध रखते हैं। TARAण्मासमक्षा समानारामनार पकार पनि जसहरचरिउ; सन्दर्भ-राजा यशोधर अपने प्रमुख मत्रियों से गम्भीर विचार विमर्श कर रहे हैं। जसहरचरिउ, मौजमावाद, जयपुर प्रति 11. पुण्णासवकहा 13/12/3. ३०६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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