Book Title: Girnar Mahatmya
Author(s): Daulatchand Parshottamdas
Publisher: Jain Patra

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Page 12
________________ संशोध्यातिपरिश्रमेण नितरां चार्वक्षरै मुद्रयते स्यात्तत्रापि च किंचिदीक्षणगतोन्मादादशुध्धं यदी क्षांत्वा शोध्यमुदारबुध्धि विभवैः प्रज्ञैः कृपादृष्टीतो मिथ्यादुष्कृतमस्तु नम्रवचसा संप्रार्थये सज्जनान् ॥१॥ अनर्घ्य मणिमाणिक्यं हेमाश्रयमपेक्षते अनाश्रया न शोभते पंडिता वनिता लताः ॥ Aho ! Shrutgyanam

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