Book Title: Gautam Pruccha Vrutti Author(s): Shravak Hiralal Hansraj Publisher: Shravak Hiralal Hansraj View full book textPage 7
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsur Gyanmandir गौतम पत्रावण ॥४॥ वेयणविमुक्को ॥ पंचिंदिनवि हो । केण वि एगें दिन हो ।१०॥ व्याख्या-हे नग- वन केन कर्मणा प्राणी बहुवेदनानों नवति? वा केन कर्मणा वेदनाविमुक्तो नवति ? केन कर्मणा जीवः पंचेंइियो जवति ? केन च कर्मणा स एकेंश्यिो जवति ? ॥ १०॥ गा. था-संसारोवि कह श्रीरो । केणवि कम्मेण हो संखित्तो ॥ कह संसारं तरि । सिइिपु. रं पाव पुरिसो ॥ ११॥ व्याख्या-हे नगवन् कथं संसारः स्थिरीनवति ? केन कर्मणा चस संसारः संक्षिप्ता नवति ? तथा पुरुषः संसारसागरं तरित्वा कश्यं सिक्षिपुरी प्राप्नोति ? ॥११॥ गाथा-सबजगजीवबंधव | सम्वन्नू सवदंति मुलिंद ॥ सबबल जयवं । कस्स य कम्मस्स फलमेयं ॥१२ ।। व्याख्या-हे सर्वजगज्जीवबंधव! हे सर्वज्ञ! हे सर्वदर्शिन् ! दे मुनी! हे सर्ववत्तल! हे नगवन् ! कस्य कर्मस्यैतत्फलं तत्कथयत ? ॥ १२॥ गा. था—एवं पुछो नयव । तियसिंदनरिंदनमियपयकमलो॥ अह साहिन पयत्तो । वीरो महुरा- वाणीए १३ ॥ व्याख्या-एवममुना प्रकारेण पृष्टः सन् जगवान महावीरो मधुरवाण्या कथयितुं प्रवृत्तः, किं विशिष्टो वोरः? त्रिदशेनेरेइनमितपदकमलः ॥ १३ ॥ श्रीनगवा ॥४॥ For Private And PersonalPage Navigation
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