Book Title: Digambar Jain 1923 Varsh 16 Ank 07
Author(s): Mulchand Kisandas Kapadia
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 16
________________ NO ___दिगंबर जैन । (१४) है अकृत्रिम और नित्य । यह देखने में ज्ञात है सिद्धान्त ताधारण मनुष्यों द्वारा कठिनतासे जाना कि वह जन्मजन्मांतरों को धारण करता रहता है, जाता है । वे मानते हैं कि मनुष्यकी आत्मा दुःख सुखका अनुभव करता है । परन्तु इसकी एक सत्ता है परन्तु यह आश्य ही एक बड़ा स्वामाविक निधि अनन्त एवं अनाधिनिधन कार्य है कि उनसे मनुष्य मनुष्यके आपसी, और वीर्य, ज्ञान और आनन्द हैं। हृदय, पद्दल एवं अन्य शक्तियों के भी आपसी यह वेदान्तका प्रथम सिद्धान्त है और जैन- अंतरको भूल जानेको कहना यह वास्तवमें धर्म भी आत्माको अनादिनिधन असंगत नहीं है एक विचारशीलके मानने मेंऔर अनन्त मानने में सहमत है। अपने को एक सत्ता मानते हुए-कि वह अपने इस प्रकार यह प्रत्यक्ष है कि वेदान्त और पड़ोसी-एक सत्ताके रूपमें-से विभिन्न है एवं जनधर्म दोनों ही साथ साथ बौद्धधर्मसी विनः सत्ताके रूपमें अचेतन पदार्थों और शक्तियोंसे म्बरतावादका निषेध करते हैं। और आस्माकी भी। हम कहते हैं-ऐसी दृष्टि असंगत नहीं है। सनातनी सत्ता मानते हैं । परन्तु यहां पर आकर हम यह भी कह सक्ते हैं कि वह साधारण दोनों धर्म विलग विला होनाते हैं। वेदान्त- समुदायके अधिकांश भागके साधारण मस्किको वादी आत्माकी सत्ता मानकर संतोषित नहीं विशेषरूपमें संतोषित करती है। इसलिए वह होता परन्तु वह साहसपूर्वक अगाडी बढना है साधारण है और वेदान्तका पीछ। छुटता है। और भात्माको संसारी आत्मासे अनन्य ठहस्ता दूसरा मारतीय दर्शन जिप्तका हम इस संबंधमें है। वेदान्त के मतानुसार श्रष्टि अपने समस्त विचार करना चाहते हैं वह कपिलका विख्यात् चेतन अचेतन पदार्थों के साथ केवल: एक और दर्शन है। वेदान्तसे आत्माको अकृत्रिम और भात्मासदृश (Solfsemo) सत्ताकी प्रकाशन मनादि माननेमें सहमत होते हुए भी वह आ. है। "मैं ही वह हूं।" सारिक (Cosmic) स्माकी बहु संख्या माननेसे बाज़ नहीं आता है। शक्ति वह है। मैं एक निराली और स्वतंत्र वेदान्तसे विपरीत वह एक अचेतन सांसारिक सत्ता नहीं हूं। मेरेसे बाह्य सांसारिक शक्ति शक्तिको मानता है जो कि प्रत्यक्ष सहयोगमें जो मेरा प्रतिरोध करता विदित होता है एक पुरुष अथवा आत्माके साथ क्रियापय है । सांख्य स्वतंत्र और विलग सत्ता नहीं है। केवल एक सिद्धान्तके मतानुसार आत्मा अकृत्रिम, अनादि, मुख्य सत्ता है । और आप, मैं एवं अन्य समस्त अनन्त है और ऐसी अस्मा बहुसंख्यक हैं। चेतन पदार्थ तयैव पौगलिक पदार्थ और कपिल का दूसरा मुख्य सिद्धान्त आत्मासे भिन्न शक्तियां इन सत्ताओं से सत्ताका प्रकाशन और स्वतंत्र एक अचेतन शक्ति को मानने में है। समझना चाहिए। यद्यपि यह शक्ति समय विशेषके लिए आत्मा के वास्तवमें जैसे यह भति उच्च और विशाल सहयोगमें क्रियावान है। हमारा छुटकारा भासता है वेदान्तका अभिन्नता (Identity)का आत्माको बाह्य शक्तियों के पंसे छुटाने में है।

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