Book Title: Digambar Jain 1923 Varsh 16 Ank 07
Author(s): Mulchand Kisandas Kapadia
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 19
________________ ( १७ ) चाहे कोई धर्म हो जो वेदोंकी विपरीतता करता हो उसे इन तत्वोंको रखना होगा और इनके रखे विना उस काम नहीं चलता है । क्योंकि मुख्य कारण के लिए कि वैदिक यज्ञ हिंसामा थे और इन इच्छासे किए जाते थे कि मानुषिक विषयसुख की वृद्धि इस मा और आगामी में हो । अब जैन ने भी वेर्दोकी प्रमाणिकताका और उसने भी निषेव किया था । अहिंसा और त्यागको स्वीकार किया था । फक्तः जैनधर्म अपने बाह्यरूपमें बौद्धधर्मके सदृश ही भाषता था । दोनोंने ही वेदों का खन्डन किया था और दोनोंने ही अहिंसा और त्यागके सिद्धान्तों को अपनाना था । यह बाप ही दोनों धर्मों का एक परदेशीको उनकी अभिन्नता में विश्वात उत्पन्न करा उक्ता है । परन्तु इससे यह प्रनाणित नहीं होता कि वे हैद्धांतिक रीत्या अभिन्न हैं । आचार संबंधी नियम भले ही दोनों दार्शनिक मतों में एक समान अथवा सदृश हों परन्तु उनके सिद्धान्त नितान्त ही एक दूसरे के विपरीत हैं। मनुष्यकी मुक्ति हो सक्ती है कि मनुष्य जीवन के साकरण विषयसुखका निरोध करे. और एक तगस्य एवं त्यागमय जीवनतीत करे-ठोक ! दृष्टान्तस्वरूप, यह तो प्रत्येक. भारतीय दर्शनों ने एक करके माना है । पे उनके सिद्धान्त एक दूसरे के नितान्त विपरीत हैं। यूना में सैनसिप (Cynicism) और सैरेनैसिज्न (Cyrensicism) दोनोंहीने अपने रिकारको एक मुखा वापर जगतका संपूर्ण दिगंबर जैनः | WP । ! जिसका इसे उपयुक्त रीत्या गर्व हो सक्ता है और जिससे गौतमका सिद्धान् नितान्त अछूता है यह इस प्रकार है कि हम जैन धर्मका स्थान भारतीय सैद्धान्तिक दर्शनों में द्योत करना चाहते हैं । कतिपर्योने अव ही इसे बौध धर्मसे अमित्र सिद्ध करनेके प्रयत्न किए थे। जैसे लैस साहत्र (Lassen) और वेबर साहब (Weber) ने, जैन धर्मकी स्वतंत्र उत्पत्तिको स्वीकार नहीं नहीं किया था। इतने पहिले कि सातवीं शताब्दिमें हुअंग सान्ग (Huang Tsang) ने ऐसे कारण पाए जिससे वह जैनधर्मको बौद्धधर्म की शाखा समझा था । इसके विपरीत बुल्लर साहब (Buhler) और जैकोबी (Jacobi) साहब दोनों ही जैनधर्म स्वतंत्र निकासको स्वीकार करते हैं और बल्कि यह मानते हैं कि वह बुद्धसे पहिले भी प्रचलित था । हमारी इच्छा नहीं है कि हम इन पुरातत्व संबंधी प्रश्नों की उल्झ नमें पढ़ें । हमने यह माननेकी जुर्रत की है कि बौद्ध धर्म और धर्म दोनों ही अपने विख्यत् व्यवस्थापकों के पहिले से ही विद्यमान थे । उनक निकास वस्तुतः बुद्ध और पानपर आत नहीं है। यद्यपि वे दोनों ही वेद और क्रियाकाण्ड निषेवक हैं जैसे कि उपनिषद् स्वतः हैं । यह प्रकट करता है कि पांगने क्योंकर दोनों घर्मो को अभिन्न माना । जब वह मारतवर्ष में आया तब बौद्धव प्रचिलित धर्म था। उसके मुख्य तत्व जैसे कि हम देख चुके हैं अहिंसा और त्याग थे । इन्हीं तत्वोंद्रात रक्षक और मेदक शास्त्रों के रूपमें बौद्धमत सफरता पूर्वक वैदिक कर्मकाण्डके विपक्षमें लड़ा था और

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