Book Title: Digambar Jain 1923 Varsh 16 Ank 07
Author(s): Mulchand Kisandas Kapadia
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 23
________________ (२१) _दिगंबर जैन । नोट-एक विद्वान् बंगालीके दर्शन संबंधी हम दीर्घजीवी कैसे मुकावलेके अंग्रेजी लेखका अनुवाद करना कठिन कार्य है । यद्यपि अनुवादकने बहुत सावधानी होसक्ते है। की है तब मी त्रुटि रहमानी संमत्र है। जहां आस्मा वै पुत्रनामासि स जीव शन्दः शतम् कोई भ्रम पड़े असली लेखसे मिला लेना चाहिये। (निरुक्त ३ । ४ ।) ॐ तच्चक्षुर्देवहितं पुरस्ताबद्यपि लेखकने कहीं २ कुछ स्पष्ट नहीं लिखा च्छुक्रमुच्चरेत् पश्येम शरदः शतं जीवेम शरः है जैसे:धर्म, अधर्म, अाफाश, काठको पुद्गल शत शृणुयाम शरदः शतं प्रबवाम शरदः कहना । इनको बाजीव लिखना था तथा पुरलसे शतमदीनाः स्याम श-दः शतं भूयश्च शग्दः मिन्नता बतानी थी। तो मी ले वने जो जैन शतात् । (यजुर्वेद अध्याय ३६ मं० २४) दर्शनको बौद्ध, चार्वाक,वेदान्त, नैयायिक, सांख्य इन दोनों वचनोंसे विदित है कि मनुष्की व योगके अपूर्ण सिद्धांतोंके मुकाबले में पूर्ण व साधारण आयु सौ वर्षकी है। विलायतके प्रसिद्ध बुद्धिप्र ह्य दिखलाया इसके लिये हम लेखकके डाक्टर सर जेम्स क्रिस्टन ब्राउन लिखते हैं किसुविचारके कृतज्ञ हैं। लेखकने जैन सिद्धांत "मेरी समझ में मनुष्यको अपनो आयुकी अन्तिम को स्वतंत्र सिद्धांत प्रगट किका है। यदि लेखक सीमा तक पहुँचने का प्रयत्न करना चाहिये । " जैन धर्मके ६ द्रव्य तथा सात तत्वोंकी महत्वता डाक्टर पठारेंसकी तरह मैं भी जीवन की सोमा अन्य दर्शनोंसे मुकाबला करके बताता तो और सौ वर्ष मानता हूँ । इससे स्पष्ट ज्ञात होता है मी उत्तम होता । लेखकने यह तो स्पष्ट बता कि प्राचीन और नवीन आयु सीमा सम्बन्धी दिया है कि जैनमत बौद्धमतसे नहीं निकला विचारों में कोई विशेष अन्तर नहीं। परन्तु बौद्ध मतको मी जेन मतसे निकला नहीं यह अभिलाषा प्रत्येक मनुष्य के हृद में माना है । इस बातपर लेखकको पुनः विचार पायी जाती है कि यह स्वास्थपूर्वक बहुत काल करना चाहिये । संभव है क्षणिक बाद पूर्वसे तक जीवित रहे । वह वृद्धावस्थासे डरता है। हो पर बौद्धधर्मका ढांचा जैन धर्मसे ही कुछ प्रसिद्ध कवि शेक्सपियरके वचनों में (Sous लेकर घड़ा गया है। गौतम बुद्धकी जीवनी teeth, sauseyes, sause taste, sausa बौद्धधर्म स्थापित किया ऐसा बताती है । यद्यपि everything) दात, आँख और स्वादादिरपूर्व में गत बुद्धोंका मी वर्णन करती है परन्तु हित शैशवकालको फिर दूसरी बार कोई प्राप्त गौतमको जन्नसे बुद्वमती नहीं मानती है। होना नहीं चाहता है। लेखकने अपने शुद्ध भावसे जैन दर्शनका महत्व प्रश्न यह है कि किस प्रकार हम जीवन प्रगट किया है । इस लेखकसे और मी लेख व्यतीत करें, जिससे वृद्धावस्थामें भी हमारी प्राप्त कराने चाहिये । लेख मनन योग्य है। इन्द्रिया साधारणतया कार्य करती रहें। इसके ब्र० शीतलप्रसाद। उत्तरमें डा. कहेंगे कि बलवर्द्धक दवाएं सेवन

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