Book Title: Digambar Jain 1923 Varsh 16 Ank 07
Author(s): Mulchand Kisandas Kapadia
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 22
________________ दिगंबर जैन । (१०) उच्च उत्कृष्ट व्यक्ति है; उत्कृष्ट व्यक्तिसे उच्च सांख्यमतानुसार आत्मा परिवर्तनरहित और अप्रकाश्य (Unmanifested) है, अप्रक श्यसे पूर्णतया निवज (Passive) है । जैन सिद्धा. उच्च आत्मा है । आत्मासे उच्च कुछ नहीं है। न्तानुसार वह अनन्त विकाश और यह सीमा है-अंतिम ध्येय है।" पूर्णताकी शक्तियोंका धारक है और जैन सिद्धान्तका सम्बन्ध नितान्त विभिन्न है। सदैव क्रियावान है । फक्तः हमें अर्हत यहां अचेता पदार्थ का सिद्धान्त एकसे अधिक मगवान के सिद्धान्तोंको एक यथार्थ दर्शन मानना ही नहीं है वरन ऐसे सर्व सिद्धान्त अनःत्मिक चाहिए जो कि एक आलोचनात्मक भावसे प्रारंभ हैं। यह सम्मा है जैसे हम देख अ.ए हैं कि होता है, सूफीमनसे भी गहरा पैठता सांख्यके अचेतन पदार्थ का सिद्धान्त आत्मिक है और अन्य भारतीय दर्शनोंकी बनाया जा सकता है परन्तु जैनसिद्धान्त कमी भांति अपने निजी विचार, नियम मी नहीं। यही सिद्धान्त पौद्ग लेक' अणु हैं और तत्वोंको निर्मित करता है। (हल्दछ) । धर्म अधर्म के दो सिद्धान्त, काल और यह कहा जा सक्ता है कि जैन और वैशे. आकाश-सर्व पुद्गल हैं अथवा पद्गलकी पर्याय हैं। षिक दर्शन एक दुसरेके अति सदृश हैं और एक (Sincqua now ) जैनधर्ममें आत्मा भी एक दूसरे पर सरल रीत्या घटित की जाती है। मस्तिकाय मानी गई है अर्थात किसी परिमाणको अणुओं, आकाश, काल और धर्मके सिद्धांत एवं लिए हुए । उसमें लेश्या भी मानी गई है और आत्मा का सिद्धान्त दोनों ही धर्मों में अनुमानतः यह अत्यन्त अल्पपरिमाण ( Light ) और एक समान हैं। तौ भो भिन्नताकी बात कुछ उगमन स्वभावको रखनेवाली मानी गई है। कम दर्शनीय नहीं है । भरने बहुसंख्यक सिद्धाप्रत्यक्षतः यह सर्व सांख्य सिद्धान्तोंके विपरीत नोंकी परवा न करती हुई वैशेषिक फिलासफी है और यदि कपिल का सिद्ध न्त, जैसे हम देख परमात्माका एक सिद्धांत मानकर (Monistic) धुके हैं, भ्रान्तवादके मिनटतर है, तो अनसि- चक्र खा जाती है जब कि जैनधर्म अंततक बहु द्धांत किसी किसी समय द्वादके निकट संख्यावाद (Pluralistic) है । पहुंचा ज्ञात होता है ।* -सम्पूर्ण करने के लिए अवश्य ही जैन सिद्धा___ यह इस प्रकार है कि हम देखते हैं कि जैन इतके कुछ तत्व बौद्ध, वेदान्त, सांख्य और वैशेधर्म मुख्यतः सांख्यसे विपरीत है। और उससे षिक दर्शनों के (दृश हैं परन्तु इससे उसके स्व. नहीं लिया जा र.क्ता है। नहीं, कतिपर बातोंमें तंत्र निकास और स्वाधीन उन्नतिमें कोई बाधा दोनों दर्शन एक दुसरेका विरोध करते हैं। जैसे नहीं पड़ती है। यदि अन्य भारतीय दर्शनोंसे * यहां फिर लेखकको यह जतलाना आव. इसमें स. १३१ मी पए जाते हैं तो इसके अपने श्यक प्रतीत होता है कि यह उसका मत नहीं है निनी विशेषण और उल्लेखनीय भेद मी हैं। कि महा भ्रान्तबाद है. अथवा जैनधर्म पुद्गलवाद। अनुवादक-कामतापसाद जैन-देहली।

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