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'धर्मशास्त्र का इतिहास' पाँच भागों में प्रस्तुत किया गया है। प्रस्तुत पुस्तक इसका चौथा भाग है। इन सभी भागों की एक संयुक्त अनुक्रमणिका हम अलग पुस्तिका के रूप में प्रस्तुत करेंगे । यहाँ यह उल्लेखनीय है कि कागज की महता और मुद्रण, वेष्टन आदि की दरों में पर्याप्त वृद्धि हो जाने पर भी हमने इसका मूल्य पहले छपे हुए भागों की भाँति ही रखा है। हमें विश्वास है कि प्रचार और प्रसार की दृष्टि से हमारे इस आयास का स्वागत किया जायगा । हमारी यह चेष्टा होगी कि भविष्य में भी हम इस प्रकार के महनीय ग्रन्थ उचित मूल्य पर ही अपने पाठकों को उपलब्ध करायें ।
हम एक बार पुनः हिन्दी के छात्रों, पाठकों, अध्यापकों, जिज्ञासुओं और विद्वानों से, विशेषतः उन लोगों से जिन्हें भारत और भारतीयता के प्रति विशेष ममत्व और अपनत्व है, यह अनुरोध करना चाहेंगे कि वे इस ग्रन्थ का अवश्य ही अध्ययन करें। इससे उन्हें बहुत कुछ प्राप्त होगा। इससे अधिक कुछ कहा नहीं जा सकता । हमारी अभिलाषा है, यह ग्रन्थ प्रत्येक परिवार में सुलभ हो और समादृत हो ।
सधन्यवाद !
कार्तिक पूर्णिमा, सं० २०३० (१९७३ ई० ) राजष पुरुषोत्तमदास टण्डन, हिन्दी भवन, महात्मा गांधी मार्ग, लखनऊ
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काशीनाथ उपाध्याय 'भ्रमर'
सचिव, हिन्दी समिति, उत्तर प्रदेश शासन
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