Book Title: Dharmik Vahivat Vichar
Author(s): Chandrashekharvijay
Publisher: Kamal Prakashan

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Page 23
________________ धार्मिक-वहीवट विचार हो, वह आत्मा संचालनके अयोग्य माना जाता है / शास्त्रनीतिके प्रति पूरी निष्ठाके साथ संचालन करनेवाला पुण्यात्मा सद्गतिगामी यावत् मोक्ष-प्रापक बन पाता है / उससे विरुद्ध आचरण करनेवाला आत्मा दुर्गतिगामी बनता है / एकाध पैसेकी भी गलती करनेवालेको भारी कर्मोंका बंधन होता है / उसमें भी जो आत्मा अज्ञात रूपसे भी देवद्रव्यकों नुकसान पहुंचाये या उसका भक्षक बने, उसके लिए तो दीर्घकालपर्यन्त सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति स्वप्नवत् बन जाती है / शायद उनकी भवयात्रा अनंतकालकी हो जाती है / __ कहा है कि, धर्मद्रव्यके किसी भी विभागमें कुसंचालन करनेवाला आत्मा, दारिद्यका शिकार होता है, रोगिष्ट बनता है, अपयशका भागी बनता है / उसके कुलका सर्वनाश होता है / धर्मद्रव्यके रक्षण-भक्षणके इन गुणदोषोंको समझकर संचालकको चाहिए कि पूरी सावधानीके साथ संचालन करें / __ - धर्मस्थानोंमें ट्रस्टी कौन हो सकता है ? - शास्त्रकार परमर्षियों फरमाते है कि एक देरासर बांधनेसे दाताओंको जितनी पुण्य-उपलब्धि होती है, उससे अधिक कईगुनी पुण्य-प्राप्ति, देरासरके निर्माणकार्य और व्यवस्थामें सहायक लोग प्रास करते हैं / इससे ज्ञात होगा कि धर्मसंस्थाओंके शास्त्रीयनीतिका प्रमाणित संचालनका मूल्य, शास्त्रकार, परमर्षियोंने कितना ऊँचा माना है ! ___ वास्तवमें तो पूजारियोंकी आवश्यकता ही न थी; क्योंकि श्रावक और श्राविकाएँ, देरासरमें प्रात:कालमें ही काजा लेना आदिसे प्रारंभकर सारी क्रियाएँ कर लेते थे / भगवानके सही पूजारी तो श्रावक-श्राविका ही होने चाहिए / परमात्माकी पूजा, वेतनभोगी नौकर-सेवक, उचित ढंगसे थोडे ही कर पायेंगे ? उस प्रकार वेतनभोगी मुनिमोंकी भी पहले आवश्यकता न थी / जिनकी संतानें दूकान-व्यवसाय आदिके संचालनमें सक्षम हो गये हों, ऐसे महाशय निवृत्त होकर धर्मस्थानोंके हिसाब-किताब लिखना-देखना या अन्य कार्यवाही करनेकी मानद सेवा करते ही थे / यदि आज भी निवृत्त गृहस्थ एक एक संस्थाका कामकाज सम्हाल लें तो मुनीमोंकी आवश्यकता बिलकुल न रहे; लेकिन एक अत्यंत कटुसत्य यह है कि. गृहस्थोंकी रुचि, बडी तेजीसे धर्ममेंसे कम होने लगी है और इसी कारण धर्मसे संबद्ध धर्मस्थानोंके

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