Book Title: Devidas Vilas
Author(s): Vidyavati Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 11
________________ प्रधान सम्पादकीय महाकवि देवीदास के साहित्य को देखकर यह प्रतीत होता है कि उनका नाम कोई व्यक्तिवाची संज्ञा नहीं, बल्कि उत्तर-मध्यकालीन आध्यात्मिक-साहित्य का एक पर्यायवाची नाम बन गया है। महाकवि के व्यक्तिगत जीवन के अध्ययन से विदित होता है कि वे एक ऐसे नैष्ठिक श्रावक थे, जिनका परिवार तो बहुत बड़ा था किन्तु आजीविका के साधन अत्यल्प । वेवश परिस्थितियों के कारण वे अपने कन्धे पर अथवा बैल पर व्यापारिक वस्तुएँ लादकर (इस प्रक्रिया को बुन्देलखण्ड में आज भी बंजी - भौरी के नाम से जाना जाता है) ग्रामीण एवं आटविक इलाकों में बेचते फिरते थे और उससे उनकी जो भी आय होती थी, उसीसे अपने पूरे परिवार का भरण-पोषण किया करते थे। फिर भी, आत्मिक-सन्तोष तथा देव- शास्त्र एवं गुरु के प्रति श्रद्धा-भक्ति उनमें इतनी अटूट थी, कि आर्थिक विपन्नता तथा उत्कट सुखदुख के क्षणों में भी वे समवृत्ति से अपनी नियमित साहित्यिक साधना के लिए समय निकाल लेते थे। इस दृष्टि से हिन्दी - साहित्य के महान् रहस्यवादी सन्त कबीर से देवीदास की तुलना की जा सकती है। सन्त कबीर भी आजीविका हेतु तन्तुवाय ( जुलाहे ) का कार्य करते थे किन्तु समता वृत्ति उनमें इतनी अधिक थी कि उन्होंने जिस अध्यात्मवाद से ओतप्रोत रहस्यवादी - काव्य साहित्य का प्रणयन किया, वह विश्व- -वाड्मय के अनूठे साहित्य की कोटि में आ गया। महाकवि देवीदास की भी यही स्थिति थी । साधुओं का सान्निध्य, शास्त्र - श्रवण, नियमित-स्वाध्याय, आत्मचिन्तन एवं मनन ने उनमें गहरी आत्मानुभूति उत्पन्न की और उसीके सहारे उन्होंने हिन्दी - साहित्य के रीतिकालीन परिवेश में भी आध्यात्मिकता की जो धारा प्रवाहित की, वह विस्मयकारी एवं ऐतिहासिक मूल्य की सिद्ध हुई है। कवि ने जैनविद्या के विविध पक्षों को, कुछेक प्रसंगों को छोड़कर, प्रायः सीधीसादी सरल बुन्देली - हिन्दी में प्रकाशित किया है। चाहे वह जैन- दर्शन का पक्ष हो अथवा अध्यात्म, आचार अथवा पूजा-अर्चा का, चाहे इतिहास तथा संस्कृति का पक्ष हो अथवा समाज-शास्त्र का, उसने आगम- परम्परा को ध्यान में रखते हुए सभी विषयों पर अपनी लेखनी चलाई है। यही नहीं, उसने चित्र - बन्ध Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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