Book Title: Dasvaikalik Sutra Mool Path
Author(s): Gyansundar
Publisher: Nathmalji Moolchandji Shah
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(५३)
( काव्यम्.) जिण वयण रए अतिंतिणे, पम्पुिन्नायय मायय लिए; आयार समाही संवुमे, नवश्य दंते नाव संधए ॥४॥
(काव्यम्.) अलिगम चउरो समाही, सु विसुयो सुसमा हियप्पट, विउलहिय सुहावहं पुणो, कुवर सो पयरकेम मप्पणो ॥५॥ जाइ मरणाउ मुच्चर, श्ववंच चयश् सव्यसो; सिझे वा हवश् सासए, देवे वा अप्प रए महिड्ढिए तिबेमि ॥ ६॥ इति विणयसमाही चनो उद्देशो नवमंशयसम्मत्तं ॥ ५॥
(काव्यम्.) निरकममाणाश्य बुद्ध वयणे, निच्चं चित्तसमाहिक हवेद्या; श्छीण वसं नयावि गजे, वंतं नोपनि यायइ जे स जिख्खू ॥१॥ पुढवि न रकणे न रकणावए, सीउदगं नपिवे नपीया वए; अगणि सब जहा सुनिसियं, तं नजले नजलावए जे स निख्खू ॥२॥ अनिलेण नवीए नवीयावए; हरियाणि नचिंदे नचिंदावए. बीयाणि सया विवद्ययंतो, सचित्तं नाहारए जे स निख्खू ॥३॥ वहणं तस्स थावराणं होश. पुढवि तण करु निसियाणं, तम्हा उद्देसियं न तुंझे, नोवि पए नपयावए जे स निख्खू ॥४॥ रोश्य नाय पुत्त वयणे अत्तसमे मन्नेश प्पिकाए; पंचेय फासे महव्वयाई. पंचासव्व संवरेय जे स निख्खु ॥ ५॥ चत्तारि वमे सया कसाए, धुव जोगो हवेद्य बुध वयणे; अहणे निशाय रूव रयए, गिहि जोगं परिवन ए जे स निख्खु ॥ ६॥ सम्मदिनी सया अमुढे, अ

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