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दान
__ दान
दान समझ सहित
जगह बनवाई थी, वहाँ सभी साधु-संतों की भोजन व्यवस्था। मतलब जबरदस्त दान चलता था, इसलिए दानवीर कहलाए। हमने यह देखा था सब। हर एक को देते रहते थे, वैसे-वैसे धन बढ़ता रहता था।
धन का स्वभाव कैसा है? यदि किसी अच्छी जगह पर दान में जाए तो बहुत अधिक बढ़ता है, ऐसा धन का स्वभाव है। और यदि जेबें काटीं तो आपके घर कुछ नहीं रहेगा। इन सभी व्यापारियों को इकट्ठा करें और हम पूछे कि भाई ! कैसा है आपको? बेन्क में दो हज़ार तो होंगे न? तब कहेंगे कि साहब, बारह महीनों में लाख रुपये आए, पर हाथ में कुछ भी नहीं है। इस पर से तो कहावत पड़ी कि चोर की माँ कोठी में मुँह डालकर रोए। कोठी में कुछ होता नहीं, फिर रोएगी ही न।
लक्ष्मी का प्रवाह दान है और जो सच्चा दानी है, वह कुदरती रूप से ही एक्सपर्ट होता है। मनुष्य को देखते ही समझ लेता है कि भाई ज़रा ऐसा लगता है। इसलिए कहेगा कि भाई बेटी के ब्याह के लिए नक़द पैसा नहीं मिलेगा, तुझे जो कुछ कपड़े-लत्ते चाहिए, दूसरा सब चाहिए, वह ले जाना। और कहे कि बेटी को यहाँ बुला ला। फिर लड़की को कपड़ेजेवर सब दे दे। सगे-संबंधियों को मिठाई अपने घर से भेज दे, ऐसे व्यवहार सब संभाल लेते हैं। पर समझ जाते हैं कि यह नंगोड़ (बेशर्म) है। नक़द हाथ में देने लायक नहीं है। यानी दान देनेवाले भी बहुत एक्सपर्ट होते हैं।
दान किसे दिया जाए? आप गरीब को पैसे दो और पता लगाओ तो उसके पास पौन लाख रुपये पड़े होंगे। क्योंकि वे लोग गरीबी के नाम पर पैसे इक्ट्ठे करते हैं। सब व्यापार ही चल रहा है। दान तो कहाँ देना है? जो लोग माँगते नहीं और अंदर दु:खी होते रहते हैं, और दब-दबकर चलते हैं, वे कोमन लोग हैं, वहाँ देने का है। उन लोगों को बहुत उलझन है, उस मध्यमवर्ग को।
एक आदमी के मन में ज्ञान हुआ। क्या ज्ञान हुआ? कि ये लोग ठंड से मर जाते होंगे। यहाँ घर में भी ठंड में रहा नहीं जाता है। अरे, हिमपात होनेवाला है और इन फुटपाथवालों का क्या होगा? ऐसा उसे ज्ञान हुआ, यह एक प्रकार का ज्ञान ही कहलाए न! ज्ञान हुआ और उसके संयोग सीधे थे। बैन्क में पैसा था, इसलिए सौ-सवा सौ कम्बल ले आया, हलकी क्वालिटी के! और सुबह चार बजे जाकर, दूसरे दिन ओढ़ाए सबको, जहाँ सो रहे थे वहाँ जाकर ओढ़ाए। फिर पाँच-सात दिन के बाद वहाँ फिर गया न, तब कम्बल-वम्बल कुछ दिखते नहीं थे। सारे नये के नये कम्बल बेचकर पैसे ले लिए उन लोगों ने।
इसलिए मैं कहता हूँ कि नहीं देने चाहिए ऐसे। ऐसे दिया जाता है क्या? उन्हें तो रविवार की बाजार में पुराने कम्बल मिलते हैं न, वे लाकर दें। उन्हें कोई बाप भी मोल ले नहीं उसके पास से। हमने उसके लिए सत्तर रुपये का बजट बनाया हो तो सत्तर का एक कम्बल लाने के बजाय, पुराने तीन मिलते हों तो तीन देना। तीन ओढ़कर सो जाना, कोई बाप भी लेनेवाला नहीं मिलेगा।
अर्थात् इस काल में दान देना हो तो बहुत सोच समझकर देना। पैसा मूलतः स्वभाव से खोटा है। दान देने के लिए भी बहुत विचार करोगे तब दान दे पाओगे, नहीं तो दान भी नहीं दे पाओगे। और पहले सच्चा रुपया था न, तब जहाँ दो वहाँ सच्चा दान ही होता था।
अभी नक़द रुपया नहीं दे सकते, आराम से कहीं से खाने की चीज़ खरीदकर बाँट देना। मिठाई लाए हों तो मिठाई बाँट देना। मिठाई का पेकेट दिया तो वे मिठाईवाले से कहेंगे आधी क़ीमत दे दे! अब इस दुनिया का क्या करें? हम आराम से चिवड़ा है, मुरमुरे हैं, सब हैं और पकौड़े लेकर उन्हें तोड़कर दे दें। ले भाई ! हर्ज क्या है? और यह दही लेता जा। किस लिए ऐसे