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दान
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दान
रुपये हैं। ये सारे ले लीजिए। पर अभी यदि मेरे पास पाँच लाख होते तो वे सारे के सारे दे देता!' ऐसा दिल से कहता है। अब इसने पाँच ही रुपये दिए, वह डिस्चार्ज में कर्मफल आया। पर भीतर सूक्ष्म में क्या चार्ज किया? पाँच लाख रुपये देने का। इसलिए अगले भव में पाँच लाख दे पाएगा, डिस्चार्ज होगा तब।
एक मनुष्य दान दिया करता हो, धर्म की भक्ति किया करता हो, मंदिरों में पैसे देता हो, दूसरे सारा दिन धर्म किया करता हो, उसे जगत् के लोग क्या कहते हैं कि यह धर्मिष्ठ है। अब उस आदमी के भीतर क्या विचार होते हैं कि कैसे इकट्ठा करूँ और कैसे भोग लँ! भीतर में तो उसे बिना हक़ की लक्ष्मी हड़प लेने की इच्छा बहुत होती है। बिना हक़ के विषय भोग लेने को ही तैयार होता है।
इसलिए भगवान उसका एक पैसा भी जमा करते नहीं। इसका क्या कारण? कारण यह कि वे सब स्थूल कर्म हैं और उन स्थूल कर्मों का फल यहीं का यहीं मिल जाता है। लोग इन स्थूल कर्मों को ही अगले भव के कर्म मानते हैं। पर उसका फल तो यहीं का यहीं मिल जाता है। और सूक्ष्म कर्म कि जो अंदर बंध रहा है, जिसका लोगों को पता ही नहीं है। उसका फल अगले भव में मिलता है।
आज किसी आदमी ने चोरी की, वह चोरी स्थूल कर्म है। उसका फल इस भव में ही मिल जाता है। जैसे कि उसे अपयश मिलता है। पुलिसवाला मारे, वह सब फल उसे यहीं का यहीं मिल ही जानेवाला
दादाश्री : हमें लक्ष्मी धर्म के रास्ते खर्च करनी है, ऐसा चार्ज किया हो तो अधिक मिलेगी।
प्रश्नकर्ता : पर ऐसे, मन से भाव किया करे कि मुझे लक्ष्मी मिले, तो अगले भव में, ऐसे भाव किए, वह 'चार्ज' किया तो उसे कुदरत लक्ष्मी नहीं देगी?
दादाश्री : नहीं, नहीं, उससे लक्ष्मी नहीं मिलती। यह लक्ष्मी मिलने के जो भाव करते हैं न, उससे लक्ष्मी मिल रही हो तो भी नहीं मिलेगी। उलटे अंतराय पड़ेगा। लक्ष्मी याद करने से नहीं मिलती, वह तो पुण्य करने से मिलती है।
__'चार्ज' यानी पुण्य का चार्ज करे, तो लक्ष्मी मिलती है। वह भी अकेली लक्ष्मी नहीं मिलती। पुण्य के चार्ज में जिसकी इच्छा हो कि मुझे लक्ष्मी की बहुत ज़रूरत है, तो उसे लक्ष्मी मिलेगी। कोई कहे, मैं तो केवल धर्म ही चाहता हूँ, तो धर्म अकेला प्राप्त होगा और पैसे नहीं भी हों। अर्थात् उस पुण्य का फिर हमने टेन्डर भरा होता है कि ऐसा मझे चाहिए। वह मिलने में पुण्य खर्च होता है। कोई कहेगा, 'मुझे बंगले चाहिए, मोटरें चाहिए, यह चाहिए, वह चाहिए।' तब पुण्य उसमें खर्च हो जाएगा। धर्म में कुछ नहीं रहेगा। और कोई कहेगा, 'मुझे धर्म ही चाहिए, मोटरें नहीं चाहिए, मुझे तो इतने दो रुम होंगे तो भी चलेगा, पर धर्म ही अधिक चाहिए।' तब उसे धर्म अधिक होता है। और दूसरा सब कम होता है। इसलिए वह पुण्य का खुद के हिसाब से फिर टेन्डर भरता है।
ऐसी नीयत? वहाँ दान फ़िजूल
लक्ष्मी के लिए चार्जिंग । प्रश्नकर्ता : सभी लोग लक्ष्मी के पीछे बहुत दौड़ते हैं। इसलिए उसका चार्ज अधिक होगा न? तो उसे अगले भव में लक्ष्मी अधिक मिलनी चाहिए न?
तब यह वीतराग विज्ञान आपको कितना मुक्त करे ऐसा सुंदर है। सोचने पर नहीं लगता? कितना संदर है! यदि समझे तो. 'ज्ञानी परुष' के पास से समझ ले और बुद्धि अपनी सम्यक करवा ले तो काम चले ऐसा है। व्यवहार में लोग भी मेरे पास बुद्धि अपनी सम्यक् करवा लें, भले ही ज्ञान