Book Title: Daan
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation

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Page 27
________________ दान दीवारें तख्तीवाली करी हों, तो क्या हो? फिर भी लोग कहते हैं कि मेरी तख्ती लगवाना! लोगों को तख्तियाँ ही पसंद हैं न! लक्ष्मी दी और तख्ती ली प्रश्नकर्ता : कितने ही लोग समझे बिना ही देते हैं तो अर्थ ही नहीं उसका? दादाश्री : नहीं, समझे बिना नहीं देते। वे तो बहुत पक्के, वे तो खुद के हित का ही करते हैं। पे यानी सब प्रोमिस ही! दूसरा आता ही नहीं न! समझ नहीं अंदर। 'थिंकर' (विचारक) ही नहीं। पर छुटकारा जल्दी उन्हें मिलता है। प्रश्नकर्ता : छुटकारा जल्दी मिलता है ! दादाश्री : हाँ, वे लोग मोक्ष में जाते हैं। केवलज्ञान होता है। पर तीर्थंकर तो ये क्षत्रिय ही होते हैं। वे लोग सभी कबूल करते हैं मेरे पास, हम क्षत्रिय कहलाते हैं। हमें ऐसा नहीं आता है। बहुत गहन है यह। और ये तो विचारशील प्रजा! सभी सोच-विचारकर, प्रत्येक चीज़ में विचारकर काम करते हैं। और हमें (क्षत्रियों को) पछतावे का पार नहीं। उन्हें पछतावा कम आता है। ....पर तख्ती में नष्ट हो गया! कोई धर्म में लाख रुपये दान देता है और तख़ली लगवाता है और कोई मनुष्य एक रुपया ही धर्म में दे, पर गुप्त रूप से दे, तो ये गुप्त रूप से दिया उसकी बहुत क़ीमत है, फिर भले ही उसने एक ही रुपया क्यों न दिया हो। और यह तख्ती लगवाई वह तो 'बेलेन्स शीट' परी हो गई। सौ का नोट आपने मुझे दिया और मैंने आपको छुट्टा दिया। उसमें मुझे लेने का नहीं रहा और आपको देने का नहीं रहा! आपने धर्म में दान देकर खुद की तख़्ती लगवाई, इसलिए फिर लेना-देना कुछ रहा नहीं न! क्योंकि जो धर्म में दान दिया उसका बदला उसमें तख्ती लगवाकर ले लिया। और जिसने एक ही रुपया प्राईवेट में दिया होगा, उसका लेन-देन हुआ नहीं, इसलिए उसका बेलेन्स बाकी रहा। हम मंदिरों में और सब जगह घूमे हैं। वहाँ कुछ जगहों पर पूरी दीवारें तख्तियों और तख्तियों से भरी होती हैं ! उन तख्तियों का वेल्युशन (क़ीमत) कितना? अर्थात् कीर्ति हेतु के लिए! और जहाँ कीर्ति हेतु ढेरों हो, वहाँ मनुष्य देखता भी नहीं है, कि इसमें क्या पढना? सारे मंदिर में एक ही तख्ती हो तो पढ़ने के लिए फुरसत होगी, पर यह तो ढेरों, सारी की सारी प्रश्नकर्ता : धर्म का समझे बिना, नाम के लिए देते हैं। तख्ती लगवाने के लिए देते हैं। दादाश्री : वह नाम तो, अभी यह नाम का हो गया ! पहले तो नाम का नहीं था। यह तो अभी बेचने लगे हैं नाम भी, इस कलयुग के कारण। बाकी पहले नाम-वाम था ही नहीं। वे देते ही रहते थे निरंतर। इसलिए भगवान उन्हें क्या कहते थे? श्रेष्ठी कहते थे और अभी वे सेठ कहलाते हैं। शुभ भाव करे जाओ प्रश्नकर्ता : एक तरफ अंदर भाव होता है कि मुझे दान में सबकुछ दे देना है, पर रुपक में वह भी नहीं होता है। दादाश्री : वह दिया जाता नहीं न! देना कोई आसान है? दान करना तो कठिन वस्तु है ! फिर भी भाव करना चाहिए। धन अच्छे रास्ते देना, वह हमारी सत्ता की बात नहीं है। भाव कर सकते हैं, पर दे नहीं सकते और भाव का फल अगले जन्म में मिलता है। दान तो ये लटू (मनुष्य) किस प्रकार दें? और अगर देते हैं, वह 'व्यवस्थित' दिलवाता है, इसलिए देते हैं। 'व्यवस्थित' करवाता है, इसलिए मनुष्य दान देता है। और 'व्यवस्थित' नहीं करवाता, इसलिए मनुष्य दान नहीं देता। वीतराग' को दान लेने का या देने

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