Book Title: Daan
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation

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Page 25
________________ दान वाह-वाह में पुण्य खर्च हो जाता है प्रश्नकर्ता : यह आप कहते हैं वैसा नियम हो, तब तो हीराबा के लिए खर्च किया इसलिए आपको पुण्य मिलेगा? दादाश्री : मुझे क्या मिलेगा? हमें लेना-देना नहीं है। मुझे तो कुछ लेना-देना ही नहीं न! इसमें पुण्य बँधेगा नहीं, यह तो पुण्य खर्च हो जाता है। वाह-वाह हो जाती है। अथवा कोई खराब कर जाए तो, 'मुए ने देखो न बिगाड़ दिया सब' कहेंगे। अर्थात यहीं का यहीं हिसाब हो जाता है। हाईस्कूल बनवाया था, तो यहीं का यहीं ही वाह-वाह हो गई। वहाँ मिले नहीं। प्रश्नकर्ता : स्कूल तो बच्चों के लिए बनवाया। वे लोग पढ़े-लिखे, सद्विचार उत्पन्न हुए। बनावट करके लोगों को उलटे रास्ते चढ़ाते हैं, उसके निमित्त से ! उसे खाना नहीं हो और हम खाएँ तो क्या गलत है? सारा नियम सहित है संसार पूरा? वहाँ खिलें आत्मशक्तियाँ बाकी, साथ में वह आनेवाला है? यह साथ आता नहीं। यहीं तुरन्त उसकी क़ीमत मिल जाती है, वाह-वाह तुरन्त मिल जाती है। और आत्मा के लिए जो रखा हो, वह साथ आता है। प्रश्नकर्ता : साथ क्या आनेवाला, कहा! दादाश्री : साथ में तो हम वह देते हैं, वहाँ आत्मा के लिए, उससे आत्मा की शक्ति एकदम खिल जाती है। वह हमारे साथ आया। प्रश्नकर्ता : और यहाँ तो जो खर्च किया, वह तो वाह-वाह करते हैं वही मिलता है न? दादाश्री : मिल गया। वाह-वाह मिल गई। दादाश्री : वह अलग बात है। पर आपकी वाह-वाह हुई, तो हो गया, खर्च हो गया। किसी के निमित्त से किसी को मिलता है? 'वाह-वाह' का भोजन प्रश्नकर्ता : वाह-वाह तो जिसके लिए खर्च किया, उसे जाएगी न कि आपको। आप जिसके लिए जो कार्य करते हो, उसका फल उसे मिलता है। जिसके लिए हम जो पुण्य करते हैं वह उसे मिलता है। हमें नहीं मिलता। दादाश्री : हम करें और उसे मिले? ऐसा सुना है, किसी दिन? प्रश्नकर्ता : उसके निमित्त से हम करते हैं न? दादाश्री : उसके निमित्त से हम करते हैं? उसके निमित्त से हम खाते हों तो क्या हर्ज? ना, ना, वह सब इसमें अंतर नहीं है। यह तो सारी प्रश्नकर्ता : मैं जो दान करता हूँ उसमें मेरा भाव धर्म के लिए, अच्छे काम के लिए होता है। उसमें लोग वाह-वाह करें तो वह सारा उड़ नहीं जाएगा? दादाश्री : इसमें बड़ी रकम खर्च हुई, वह जाहिर हो जाती है और उसकी वाह-वाह होती है। और ऐसी रकम भी दान में जाती है कि जो कोई जानता नहीं और वाह-वाह करता नहीं। इसलिए उसका लाभ रहेगा! हमें उस माथापच्ची में पड़ने जैसा नहीं है। हमारे मन में ऐसा भाव नहीं है कि लोग 'परोसें'! इतना ही भाव होना चाहिए। जगत् तो महावीर की भी वाहवाह करता था ! पर उसे वे खुद स्वीकारते नहीं थे न! इन दादा की भी लोग

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