Book Title: Buddhiprabha 1964 02 SrNo 52
Author(s): Gunvant Shah
Publisher: Gunvant Shah

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Page 49
________________ બુદ્ધિપ્રભા दोषदृष्टिरहितः । ... जब तक दूसरोंके दोष ही देखनेमें मन प्रवृत्त रहता है और उनके सद्गुण देखे नहि जाते तब तक शिष्य होनेकी योग्यता प्राप्त नहि होती । ... ता. १०-२-१६६४ ] 1 अहम् ममतादि दोष परिहरण शीलः ...गुरुके सदुपदेश से जो अहम् और ममताका त्याग करनेमें अपनी शक्ति लगाता है वह शिष्य बन शकता है। इन दुर्गुणोंका आदी इन्सान कभी प्रति-पक्षी बनकर गुरुकी ही खाक उडेलनेमें प्रवृत्त हो शकता है । इसलिये अहम् और ममता व दोषोंसे दूर रहेबाला इन्सान में ही शिष्य बननेकी योग्यता होती है। ... 1 परिषहजयी | पनिषद् T [ ४७ . वर्तमानकालमें जो अनेक वाद विवाद दिखलाई पडता हैं उनका प्रमुख कारन तो वही है की जो शिष्य साधु है उन्होंमें कष्टोंको सहन करनेकी ताकत नहि है । यदी यह गुण उन्होंमें होता तो वे कभी भी अपने शिष्यधर्मसे भ्रष्ट नहि बनते हांलाकि वे अपना और दूसरोंका भी कन्याण कर शकते ।... गुर्वाज्ञा विधिपूर्वक - दीक्षा ग्राहक शिक्षा योग्यः । . गुरुके वचनोंको जो मानता नहि है बल्कि उन्हीं के ही दोष देखते है और दूसरोंके आगे अपने गुरुकी दीयी हुआ आज्ञाओंको मिथ्या कहते है, वह शिष्यपदके लिये योग्य हि है । ... और जो गुरुकी हितशीक्षाओंको मजाक समज कर उपेक्षा करता है वह भी शिष्य बनके लिये काबिल नहि है ।

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