Book Title: Buddhiprabha 1964 02 SrNo 52
Author(s): Gunvant Shah
Publisher: Gunvant Shah

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Page 48
________________ ४६ બુદ્ધિપ્રભા [ તા. ૧૦-૨-૧૯૬૪ कुछ असे संयोगके कारन्, इस अंकमे, मैं कर्मयोगका हिंदी भावानुवाद दे नहि शका हूं, इसलिये मैं अपने वाचकगणकी 'क्षमा चाहता हूं। फिरभी वैसे ही उनके (गुरुदेवके) दूसरे ग्रंथ "शिष्योपनिषद"की कुछ झांकिया, इस अंकमें आपको दिखला रहा हूँ। वैदकी संस्कृतिमें उपनिषदोंका महत्व बडा भारी रहा है। संक्षिप्त वाक्योमें जीवनका सार कह देनेमें उपनिषद हमें सदा भायेगा। उसी उपनिषदोंकी शैलीका अवलंबन लेके गुरुदेवने भी तीन तीन उपनिषद लिखे हैं । "जैनोपनिषद्," जैनदृष्टिकोनसे लिखा गया " इसावाष्योपनिषद् " और शिष्य कैसा होना चाहिये उत्तम और उदार शिष्य कौन और कैसे हो शकता है, इन सबकी सरल और सचोट भाषा और शैलीमें छान बान करता हुआ 'शिष्योपनिषद्' भी लिखा है। यह ग्रंथ उत्तर गुजरातके पेथापुर गाँवमें विक्रमकी १८७३की संवतमें श्रावण सुदी तृतीयाके शुभ शनीधरके दिन पूरा किया गया था। इस पूराने ग्रंथकी नवीन आवृत्तिका प्रकाशन कार्य आज चालू हैं । शायद वैशाखी मोसमके इर्दगीर्द आप यह ग्रंथकी नवीन आवृत्ति पढ़नेके लिये पा भी शकेंगे । इस ग्रंथकी प्रस्तावनामें आपका और वख्त जायद न करके, वह ही ग्रंथकी ही कुछ झलक क्यों न आपको करा दू? तो देखिये सामनेका पत्ता और पढ़िये । -संपादक । शिष्यो र

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