Book Title: Buddha aur Mahavir
Author(s): Kishorlal Mashruvala, Jamnalal Jain
Publisher: Bharat Jain Mahamandal

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Page 136
________________ अहिंसा के नये पहाड़े · १४. व्याज और मुनाफा : एक उदाहरण से यह बात स्पष्ट हो जायगी : बम्बई के किसी फर्निचर बनानेवाले बढ़ई का उदाहरण लोजिए । जिसमें मुख्य चीजें तो लकड़ी, पालिश आदि थोड़ा-सा माल और बढ़ई की मेहनत इतनी ही हैं। लेकिन बढ़ई को औजार चाहिए, माल रखने के ढिए दूकान चाहिए और जबतक माल बिकता नहीं है, तबतक खाने के लिए खुराक चाहिए। उसके पास औजारों के लिए पैसा नहीं है । हम अपने बचे हुए पैसे में से उसे व्याज पर पैसे देते हैं। उसके पास लकड़ी वगैरह खरीदने के लिए भी पैसे नहीं हैं। उसके लिये भी हम उसको व्याज पर पैसे देते हैं । माल रखने के लिये उसके पास दूकान नहीं है। हम अपने मकान का खाली हिम्सा उसे किराये पर दे देते हैं। जबतक माल नहीं बिकता, तबतक के लिये उसके पास खानेपीने का सामान नहीं है। हम उसे व्याज पर पैसे देते हैं। बाद में एक रुपये की लकड़ी वगैरह पर सारा दिन मेहनत करके वह एक कुर्सी बनाता है । हमारे पास अभी बहुत-सा पैसा बाकी है जिसकिये हमारा जी कुर्सी खरीदने को चाहता है और हम उसकी पाँच रुपये कीमत देने के लिये भी तैयार हो जाते हैं । अर्थात् एक रुपये के माल पर चार रुपये की मेहनत की गई, ऐसा कहा जा सकता है । परन्तु हम यह जानते हैं कि बढ़ई को सवा या डेढ़ रुपये से ज्यादा रोजी नहीं पड़ती। तब बाकी के ढाई या पौने तीन रुपये किसे मिले ? स्पष्ट है कि वह सूद, दूकान किराया, खाने-पीने के 1. सामान पर नफा आदि के रूप में हमें वापस मिले । इसका यह अर्थ हुआ कि बढ़ई अगर चार रुपये की मेहनत करे, तो उसमें से पौन ' १२१ "

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