Book Title: Buddha aur Mahavir
Author(s): Kishorlal Mashruvala, Jamnalal Jain
Publisher: Bharat Jain Mahamandal

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Page 153
________________ भाषण कहता हूँ . इस मान्यता ने हमारी प्रजा की उन्नति को रोक दिया है। वह शुष्क और भावना-हीन बन गई है। वह सत्य में मिथ्या और मिथ्या में सत्य देखने लगी है । इसम उल्टे मैं आपके आगे यह विचार रखता हूँ कि निःम्वाथे और शुद्ध प्रेम के बि. किसी भी मनुष्य की उन्नति होना संभव ही नहीं। यदि आपमे विवक और वैराग्य न हो तो सन्त-समागम से वह ना सकता है, ले.कन आपका हृदय प्रेम रहन होगा तो आपका उद्धार चौवासा तीर्थंकर मिलकर भी नहीं कर सकेंगे। प्रेम-रहित हृदय में भगवान का भक्ति भी गहरी जड़ नहीं जमाती। और भगवान का भाक्त नही हो,फर भी एक भी जीव को शुद्ध और सच्चं प्रेम से चाहने की आपमें शक्ति हो, तो खाप उन्नति के मार्ग पर जा सकते है। २२. महावीर प्रेम के अवतार थे। ____मैंने एक भी महान् सन्त का चरित्र ऐसा नही देखा कि जिममें माता-पिता. बन्धु-गुरू, मित्र-देश जन इत्यादि में से किसी के प्रति भी निःस्वार्थ प्रेम की पराकाष्ठा न हो। महावीर को ईश्वर का आलम्बन नहीं था, लेकिन उनके मन में जीव के प्रति प्रेम का प्रवाह बहता था, इसलिए वे तीर्थंकर पद पर जा सके । अजामिल को भी ईश्वर का आलम्बन शायद ही था, लेकिन वह पुत्र पर अपार स्नेह रख सकता था यह देखकर ही सन्तों ने उसकं उद्धार की आशा की। यहाँ महावीर और अजा.मल की तुलना नही करनी है। अजामिल को महावीर की योग्यता नहीं पा सकती लेकिन इसका कारण दूसरे प्रकार का पुरुषार्थ, तपश्चर्या और पूर्वजीवन की

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