Book Title: Buddha aur Mahavir
Author(s): Kishorlal Mashruvala, Jamnalal Jain
Publisher: Bharat Jain Mahamandal

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Page 150
________________ महावीर का जीवन-धर्म १६. शुष्क ज्ञान की बातें: हमारे मन में भी ऊँच-नीच के भेद, जात-पात, खेती-बाड़ी देश, जन्मभूमि आदि सब भाव हैं और सब का उपयोग करके अपना जीवन चलाते हैं। उनके बढ़ने से हम अपने आपको बढ़ा मानते हैं, लोगों से लेना पाई-पाई वसूल करने में बाजार के रुख की चिन्ता करने में, सट्टा खेलने में, जाति-भोज करके वाह-वाह प्राप्त करने में, संगीत-गान का आनन्द लूटने में, साधु हो जाने पर कपड़े-लत्त पोथी और भिक्षा एकत्र करने में किसी प्रकार का व्रत, तप या दान किया हो तो उसे जग-जाहिर करने में, दुनिया के किसी भी देश की दुनियादारी में रची-पची प्रजा के समान हम भी सावधान रहते हैं, फिर भी जब किसी ग्राम में या देश में रहते हैं उसके लिए खपने अथवा चिन्ता करने का प्रसंग आनेपर “संमार की इन झंझटों से क्या जीवन का उद्धार होता है ? " " हमारी तो आध्यात्मिक संस्कृति है ऐसी संसारी बातो से हमारा क्या प्रयोजन ?' ऐसा तत्वज्ञान पेश कर बैठते हैं। भाइयो और बहनो, मैं आपसे विश्वास तथा भाग्रह-पूर्वक कहता हूँ कि यह केवल शुष्क ज्ञान है, इससे आपका किसी भी काल में उद्धार नहीं हो सकता। १७. विवक पूर्वक व्यवहार पास्तव में तो किसी भी मनुष्य के लिए विवाह करने, सन्तान पैदा करने, बच्चे को ब्याहने, धन-दौलत का संग्रह करने या प्राम

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