Book Title: Bhav Tribhangi Author(s): Shrutmuni, Vinod Jain, Anil Jain Publisher: Gangwal Dharmik Trust Raipur View full book textPage 7
________________ सम्पादकीय पपौरा जी सरस्वती भवन के अवलोकन के दौरान "भाव संग्रहादि" नामक ग्रन्थ प्राप्त हुआ था । भाव त्रिभङ्गी आचार्य श्री श्रुतमुनि द्वारा विरचित उसी के पृष्ठ भाग में प्रकाशित हुई है। ग्रंथ का पूर्ण अवलोकन करने के उपरान्त ऐसा अहसास हुआ कि यह ग्रंथ मोक्ष साधकों के लिए अत्यधिक उपयोगी सिद्ध हो सकता है। संयोगसे आर्यिका दृढ़मतीमाताजी का वर्षाकाल मढ़िया जी में हो रहा था । माताजी को जब वह ग्रंथ दिखाया माताजी को यह ग्रंथ अत्यधिक उपयोगी प्रतीत हुआ हमलोगों ने ग्रन्थ की उपयोगिता जानकर ग्रंथ का अनुवाद करना प्रारम्भ कर दिया। अनुवाद पूर्ण होने पर पूज्य आर्यिकाश्री दृढमति माताजी से मूलानुगामी अन्वयार्थ के साथ संदृष्टियों को स्पष्टीकरणार्थ हम लोगों ने समय चाहा । माताजी से प्रातःकाल का समय मिल गया । माताजी द्वारा अन्वयार्थ, संदृष्टियाँ तथा आवश्यक भावार्थ एक बार सरसरी दृष्टि से अवलोकन कर लिये गये। हमलोगों को आन्तरिक संतुष्टि हुई। ग्रंथपूर्ण होने उपरान्त व्यवस्थित कम्प्यूटर कम्पोजिंग के लिए दे दिया गया ।कुछ दिनों के पश्चात् यह ज्ञात हुआ कि आर्यिका रत्न श्री ज्ञानमति माताजी द्वारा इस ग्रन्थ का अनुवाद, पूर्व में किया जा चुका है तथा वह दि. जैन त्रिलोक शोधसंस्थान, मेरठ से प्रकाशित भी हुआ है। प्रयास करने पर माताजी द्वारा अनुवादित प्रति भी उपलब्ध हो गई । माताजी की प्रति मुख्यता से प्रबुद्ध साधकों के लिए उपयोगी जान पड़ी किन्तु संदृष्टियों का विशेष खुलासा होने की दृष्टि से हमलोगोंने जो कार्य कियाथावह उपयोगीजान पड़ा। अतः इसके प्रकाशन का विचार किया फलतः यह कृति आपके सम्मुख है। इस प्रकार ग्रंथ का प्रकाशन संभव हो रहा है। फिर भी कुछ त्रुटियाँ संभव हैं - आशा है कि विवक्षित -विषयज्ञ त्रुटियों की जानकारी अवश्य ही प्रेषित करेंगे। ग्रन्थ में प्रतिपाद्य विषय - आचार्य श्री श्रुतमुनि ने पंचपरमेष्ठी को नमस्कार कर, स्वरूप की सिद्धि के लिए भव्य जीवों को सूत्रकथित मूलोत्तर भावों का स्वरूप प्रतिपादन करूँगा ऐसी, प्रतिज्ञा कर, भावों के भेद-प्रभेदों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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