Book Title: Bhav Tribhangi Author(s): Shrutmuni, Vinod Jain, Anil Jain Publisher: Gangwal Dharmik Trust Raipur View full book textPage 6
________________ हृदयोद्गार भारतीय दर्शनों में प्रायः करके सभी दर्शनकारों ने कर्म के अस्तित्व को स्वीकार किया है। उसके विषय में जो विवेचनायें प्राप्त होती हैं - उसमें सर्वाधिक सूक्ष्म व्याख्या जैन दर्शन की प्राप्त होती है। यही कारण है कि जैन सम्प्रदाय में कर्म सिद्धान्त विषयक विपुल प्राचीन साहित्य प्राप्त होता है। जीव के द्वारा जो भी कर्म किया जाता है - उसका फल किंमात्मक होता है ? और उसका फल कितने काल तक जीव को भोगना पड़ता है ? इसका विशद निरूपण कर्मकाण्डादि ग्रन्थों में देखने को प्राप्त होता है। भाव, परिणाम एकार्थक शब्द हैं। जीव के पाँच असाधारण भाव होते हैं और उन्हीं भावों के उत्तर भेद 53 हो जाते हैं । ये सभी 53 भाव गुणस्थान एवं मार्गणाओं में सद्भाव, अभाव और व्युच्छित्ति रूप से देखे जाते हैं। उनका विशद निरूपण करने वाला एक मात्र आचार्य श्री श्रुतमुनि विरचित ग्रन्थ भाव त्रिभङ्गी है। जिसका प्रचार-प्रसार अधिक नहीं हुआ है। श्रीवर्णी दिग. जैन गुरुकुल के सुधी ब्रह्मचारी द्वय श्री विनोद जी एवं श्री अनिलजी, ने इस ग्रन्थ में दी गई संदृष्टियाँ विशेष रूप से निरूपित करके ग्रन्थ को सामान्य जन के लिये सुलभ बना दिया है। आप दोनों ही भाईयों का अधिकाधिक समय श्रुताराधना में व्यतीत होता है। " परमपूज्य आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज के आशीर्वाद एवं प्रेरणा से नवीन परिवेष में स्थापित गुरुकुल निरन्तर प्रगतिशील है। गुरुकुलवासी ब्रह्मचारीगण समाजोपयोगी कार्य के साथ-साथ स्वहित में भी संलग्न है। यह सब कुछ आचार्य श्री जी एवं श्री डा.पं. पन्नालाल जी की ही कृपा का फल है। दोनों ब्रह्मचारी भाई गुरुकुल में अध्ययन - अध्यापन के साथसाथ अप्रकाशित महत्वपूर्ण ग्रन्थों कीखोजकर अनुवाद/संपादन का कार्य कर रहे हैं। यह कार्य स्तुत्य है। इसी प्रकार श्रुताराधना में संलग्न रहे ऐसी मेरी मनोभावना है। ब्र. जिनेश जैन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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