Book Title: Bhanvarlal Nahta Abhinandan Granth
Author(s): Ganesh Lalwani
Publisher: Bhanvarlal Nahta Abhinandan Samaroh Samiti

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Page 10
________________ विद्वानों के अभिनन्दन की प्रणाली प्राचीन काल से ही चली आ रही है. तथा यह प्रणाली भारतीय संस्कृति का अंग रही है। श्री भंवरलाल जी नाहटा के ७५ वें वर्षगाँठ के सुअवसर पर वे चिरायु हों ऐसी गुरुदेव से प्रार्थना है। -जिनचन्द्र सूरि प्रतिभा की विलक्षणता के उदाहरण शताब्दियों में भी विरल रूप से सामने आते हैं। इस वर्तमान शताब्दी के ऐसे ही एक विरल उदारहण श्री भंवरलालजी नाहटा हैं। विश्वविद्यालय की डिग्रियों व उपाधियों के मार्ग से ये आगे नहीं बढ़े। फिर भी संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रश आदि प्राचीन भाषाओं तथा हिन्दी गुजराती आदि अर्वाचीन भाषाओं में आप उनसे कुछ भी पढ़वा लीजिए, बुलवा लीजिए एवं श्लोक छन्द आदि रचवा लीजिए। लिपियों में ब्राह्मी, खरोष्ठी आदि प्राचीन से प्राचीन लिपि भी इनके लिए देवनागरी है। इस स्थिति में मानना पड़ता है-श्री नाहटा जी 'सिद्ध सारस्वत हैं। सारस्वत मंत्र के सिद्ध किए जाने का इतिहास मिलता है। इनके लिए वह सहज सिद्ध है। इतिहास पुरातत्त्व साहित्य संस्कृति को आपने सहस्रों लेखों से, शतशः ग्रन्थों के लेखन व सम्पादन से साधा है। सम्बन्धित विषयों में आप किसी पर बात करिए. आपको लगेगा कम्प्यूटराइज्ड विश्व कोश है और वह बोल रहा है। अस्तु. यह सब कुछ मैंने पढ़कर या दूसरों से सुनकर नहीं लिखा है, लगभग १० वर्षों के अपने सतत् सम्पर्क की साक्षात् अनुभूतियों के आधार से लिखा है। श्री नाहटाजी जैन समाज के ही नहीं. अपितु समग्र देश के एक अप्रतिम गौरव हैं। उनके ७५ वें वर्ष के उपलक्ष में उनका अभिनन्दन किया जा रहा है, यह जानकर प्रसन्नता हुई । वास्तव में ऐसे लोगों का अभिनन्दन ही अभिनन्दन शब्द को सार्थकता व्यक्त करता है। इसी बात को दूसरे शब्दों में कहें तो इस पुनीत अनुष्ठान में अभिनन्दन ही अभिनन्दित हो रहा है। अस्तु. मैं मंगल कामना करता हूँ. श्री नाहटाजी चिरकाल तक अपनी अनुपम सेवाएं समाज को देते रहें। -मुनि नगराज श्रावक-रत्न श्री भंवरलालजी नाहटा के अभिनन्दन का संवाद पढ़कर मन प्रसन्नता से पुलकित हो उठा। श्री नाहटाजी का व्यक्तित्व बहु-आयामी है। और हर आयाम अपने में विलक्षण है। विषय चाहे भाषा-ज्ञान का हो या काव्य रचना का. इतिहास का हो या पुरातत्त्व का, श्री नाहटाजी ने इन सबमें जो महारत हासिल की है, वह अपने में विस्मयजनक है। श्रेष्ठी तो वे जन्म से ही हैं। पर इन सबसे ऊपर है उनकी धर्म-निष्ठा, जिनेश्वर देव के प्रति अटूट आस्था तथा जीवन के व्यवहारों में धर्म की आराधना । | ५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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