Book Title: Bhanvarlal Nahta Abhinandan Granth
Author(s): Ganesh Lalwani
Publisher: Bhanvarlal Nahta Abhinandan Samaroh Samiti

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Page 16
________________ नायक होते थे। उनका प्रभाव और आतंक इतना था कि क्रियोद्धारकों को भी उनसे सम्बन्ध रखना पड़ता। तभी तो यशोविजयजी जैसे या देवचन्द्रजी क्षमाकल्याग जी जैसे भी उपाध्याय ही रहे । उन्हें आचार्य पद नहीं मिला । आचार्य तो तपागच्छ में आत्माराम जी ही हुए जो कि पहले खरतरगच्छ में आये पर जाट जाति के होने से उन्हें आचार्य पद देने का प्रश्न नहीं था । वे लखनऊ शाखा के जिनकल्याणसूरि जी महाराज के पास आने को तैयार थे, फिर तपागच्छ में गए। उनका उदय था अन्यथा उस समय तक खरतर/तपागच्छ में एक समान ही साधु संख्या थी। खरतरगच्छ में जिनयशःसूरि और जिनकृपाचंद्रसूरि आचार्य हुए। बाद में अन्य साधुओं में आचार्य पद की परम्परा चली। असल में यतियों में से बहुतों ने त्याग वैराग्य वाले होने से क्रियोद्धार किया है। मोहनलाल जी महाराज, कृपाचंद्रसूरि. चिदानंदजी आदि शिवजीरामजी पायचंद्रगच्छ में भ्रातृचन्द्रसूरि तथा त्रिस्तुतिक आचार्य श्री राजेन्द्रसूरिजी आदि भी तो यति ही थे, क्रियोद्धार ही किया है। पर आजकल तो शादीशुदा भी तथाकथित यति होने लगे। वे किसी प्रकार में यति नहीं हो सकते । अगर चार महावूत ठीक है. परिग्रह त्यागा तो पंचमहाव्रत धारी साधु हो गए । वर्तमान के साधुओं से दौ सौ वर्ष पूर्व के यति लोग कोई कम नहीं थे। परिग्रह अत्यल्प था। जमाने के अनुसार वे वैद्यक ज्योतिष अध्यापनादि करने लगे। उनके शिष्य इधर सौ अस्सी वर्षों में बिल्कुल अयोग्य हो गए। इसीलिए थली प्रान्त में सब तेरापन्थी हुए । क्षेत्र न संभालने के कारण हो गए क्योंकि साधओं की संख्या नगण्य थी। राजस्थान-मारवाड़ के सैकड़ों गाँव खरतरगच्छ के थे। वे आज स्थानकवासी, तेरापंथी या अन्य गच्छ के हो गए। त्रिस्तुतिक भी कहाँ से आयें ? तथा अन्य गच्छ भी कहाँ से आए? गुजरात में भी खरतरगच्छ के हजारों घर थे पर सभी तपा हो गये । खरतरगच्छ की ११ शाखाएँ थी, उनके यति मुनि शेष हो गए । खरतर गच्छादि के यतिजन भी अपने को साध और मुनि लिखते थे यह अनेक ग्रन्थों तथा पत्रों से प्रमाणित है। अतः पत्र में कितना लिखा जाय. मौखिक चर्चा में एक-एक बात स-प्रमाण कही जा सकती है। आचार दिनकर, जिनपतिसूरि समाचारी, विधिमार्ग प्रथा विधिकंदली. समाचारी शतक तथा क्षमाकल्याण जी के, मणिसागरजी महाराज के व बुद्धिमुनि जी आदि के ग्रन्थों के अध्ययन करने पर आपको खरतरगच्छ परम्परा व मर्यादाओं आदि का ज्ञान पर्याप्त हो जाएगा। आज अपने खरतरगच्छ वाले श्रावक भी दादासाहब को यति मान बैठे हैं ये सारी भ्रान्तियाँ दूर करने की है। यति समाज सौ वर्ष पहले तक जिस रूप में था, संघ को संभाला तथा उपकार भी किया पर उनके शिथिल होने पर ही इतर सम्प्रदाय बढ़े-इस बात को तो मानना ही पड़ेगा। विद्वता और चारित्रबल दोनों की आवश्यकता है। यति समाज में विद्वता उस समय तक थी, आज तो वे भी निरक्षर भट्टाचार्य रह गये हैं। खरतरगच्छ की गाड़ी कैसे चले? आजकल जो श्रीपूज्यों की गद्दी कहते हैं पर वास्तव में गद्दी जैसी चीज खरतरगच्छ में तो थी ही नहीं. वह तौ चैत्यवासी परम्परा में थी। शाखा भेद को ही गद्दी-भेद कहने लगे। यह केवल १५०-२०० वर्ष के बीच में रूढ़ हुआ है। बीकानेर बड़ा उपाश्रय कोई श्री पूज्यों की गद्दी रूप में नहीं था । पौषधशालाउपाश्रय शुद्ध साध्वाचार वालों के लिए ही थी। भंडार आदि सब श्रावकों के हाथ में थे। श्री पूज्य तो अन्य स्थान की भाँति वर्षों से कभी-कभी आकर चातुर्मास करते थे। जिनलाभसूरिजी तक बिल्कुल यही बात थी। वे अपने जीवन में प्रायः बीकानेर से बाहर ही विचरे और गुढा में स्वर्गवासी हुए । दादा साहब के प्रभाव से ही जो कुछ है बचा है। साध्वियों की संख्या फिर भी ठीक है अतः क्षेत्र सम्भालती हैं। साधु संख्या बढ़े, त्याग, वैराग्य, क्रिया पात्रता हो [ ११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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