Book Title: Bhanvarlal Nahta Abhinandan Granth
Author(s): Ganesh Lalwani
Publisher: Bhanvarlal Nahta Abhinandan Samaroh Samiti

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Page 13
________________ विद्रदर्य श्री भँवरलालजी नाहटा के व्यक्तित्व एवं कृतित्व को मैंने निकटता से देखा और समझा है । ज्ञान, श्रद्धा तथा चारित्र की समन्वित त्रिवेणी का उनके जीवन में सहज दर्शन होता है । उनकी ज्ञान शारदा तो सर्वविदित है, किन्तु श्रद्धा-गंगा एवं चारित्र यमुना का दर्शन तो उसी ने किया है, जिसने उनका सामीप्य ग्रहण किया हो। वस्तुतः नाहटाजी श्रद्धाभिभूत हैं, किन्तु उनकी श्रद्धाभिभूतता उसी के प्रति प्रगट होती है, जिसमें सत्य का प्रतिविम्ब हो । वे धर्म गुरुओं के प्रति भी नतमस्तक रहते हैं। मैंने उनकी सर्वाधिक आस्था मुनि सहजानन्दघन जी के प्रति पायी, जो कि एक निष्पृह एवं अध्यात्मयोगी थे। श्री नाहटाजी का चारित्र श्रावकोचित् है । वे खाओ, पीओ, मौज उड़ाओ की निम्न भौतिक भूमिका एवं बाह्य जीवन से ऊपर हुए हैं । उनमें क्रोध, मान, माया व लोभ के स्थान पर क्षमा, मार्दव, सरलता तथा सन्तोष परिलक्षित होते हैं। वे सांसारिक अवश्य हैं, किन्तु उनके हृदय में संसार नहीं है, जल में कमल पुष्प हैं वे । इसीलिये मुझे उनके जीवन में ज्ञान, श्रद्धा और चारित्र का त्रिवेणी संगम दृष्टिगोचर होता है । उनका अभिनन्दन करना इस संगम के प्रति हमारी आस्था का आयाम है । श्री नाहटाजी से मेरा सम्पर्क बाल्यकाल से ही है । विक्रम संवत् २०३६ माघ शुक्ल पक्ष ११वें के दिन अभि निष्क्रमण करने के पश्चात् मेरा उनके साथ पूर्व का सम्बन्ध बौद्धिक सम्बन्ध में रूपान्तरित हो गया। श्री नाहटाजी हमारे पास अनेक बार पधारे। उनके आगमन पर हमारा लक्ष्य केवल एक ही रहता कि इस ज्ञान- शारदा से जैसेतैसे दो-चार चुल्लू भर लें । जव में वाराणसी में 'महोपाध्याय समयसुन्दरः व्यक्तित्व एवं कृतित्व' विषय पर शोध कर रहा था उस समय तो उनकी इतिहासज्ञता आदि से भी मैंने यथावश्यक लाभ उठाया था और वह मेरे लिये उपादेय भी बनी। श्री नाहटाजी से आगमिक एवं साहित्यिक असंगतिपूर्ण बातों को लेकर अनेकशः पत्रव्यवहार हुए। वस्तुतः धर्म-शास्त्रों में परस्पर अनेक विसंवादित् बातें प्राप्त होती हैं, जिन्हें पढ़कर प्रश्न उठने स्वाभाविक हैं। नाहटाजी से हम ऐसे प्रश्नों का उत्तर प्रत्यक्ष अथवा पत्र के माध्यम से पूछा करते थे। प्रसगतः श्री नाहटाजी का एक पत्र यहाँ प्रस्तुत करता हूँ। जिनका सम्बन्ध मेरे शोध-प्रबन्ध से रहा है सादर वंदन ! आपका ता० ११-२-८४ का कार्ड मिला। आपका प्रश्न महत्वपूर्ण है कि समयसुंदर जी महाराज यति थे या मुनि। उसके समाधान के लिए हमें इतिहास पर दृष्टिपात करना होगा । वास्तव में शास्त्रों में जैन साधुओं के लिए कई नाम आयें हैं, यतः यति साधु, मुनि, श्रमण, निर्ग्रन्थ, ऋषि, भिक्षु, संयती - ये सब पंच महाव्रतधारी अपरिग्रही, त्यागी साधुओं के लिए ही व्यवहृत हुए हैं। चतुर्विध संघ में साधु साध्वी श्रावक, श्राविका ही शास्त्रों में आये हुए नाम हैं। अतः पाँचवीं कोई श्रेणी संघ में नहीं थी। संवेगपक्षी या सिद्धपुत्र आदि जो नाम हैं, विशिष्ट श्रावक ही थे आज तेरापंथी आचार्य श्री तुलसी ने समणी वर्ग खड़ा किया है । वह वस्तुतः श्रावक ही है। दिगम्बरों में प्रतिमाधारी श्रावक होते हैं। एलक, क्षुल्लक, ब्रह्मचारी आदि श्रेणियाँ हैं। वे मुनि तो नग्न को ही मानते हैं। अपने यहाँ श्रावक की ११ प्रतिमाएँ हैं पर अब वह प्रथा उठ गई है। मेरे अनुदित 'जीवदया प्रकरण काव्य त्रयी' में एक गाथा है-आखीए मयण मतार सेविओं वण जो साध्वाचार में नहीं हैं, वे न श्रावक हैं न साधु । मंदिरों में निवास, गद्दी तकियों का उपभोग, पान- चर्वण, । कुक्कडो तेण सो पिल्लओ आओ न आखीन च कुक्कडो । चैत्यवास के युग में शिथिलाचार की पराकाष्ठा हो गई। रात्रि में अभिषेक नाटक आदि होते. मंदिरों में वेश्या नृत्य 5] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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