Book Title: Bhaktmal Author(s): Raghavdas, Chaturdas Publisher: Rajasthan Prachyavidya Pratishthan JodhpurPage 10
________________ भमिका भारत अध्यात्म-प्रधान देश है। यहाँ के मनीषियों ने सब से अधिक महत्त्व धर्म को ही दिया है, क्योंकि मोक्ष की प्राप्ति उसी से होती है और मानव-जन्म का सर्वोच्च श्रेवं अंतिम ध्येय प्रात्मोपलब्धि या परमात्म-पद-प्राप्ति का ही है। साध्य की सिद्धि के लिये साधनों की अनिवार्य आवश्यकता होती है। भारतीय धर्मों में वैसे तो अनेक साधन प्रणालियों को स्थान दिया गया है, पर उन सब का समावेश ज्ञान, भक्ति और कर्म-योग में कर लिया जाता है । मानवों की रुचि, प्रकृति अवं योग्यता में विविधता होने के कारण उनके उत्थान के साधनों में भी भिन्नता रहती है। मस्तिष्क-प्रधान व्यक्ति के लिये ज्ञान-मार्ग अधिक लाभप्रद होता है और हृदय-प्रधान व्यक्ति के लिये भक्तिमार्ग । योग अवं कर्म-मार्ग भी अक सुव्यवस्थित साधन प्रणाली है, क्योंकि जब तक आत्मा का इस शरीर के साथ संबंध है, उसे कुछ न कुछ कर्म करते रहना ही पड़ता है। गीता के अनुसार प्रासक्ति या फल की आकांक्षारहित कर्म ही कर्म-योग है। पतञ्जलि के योगसूत्र में योगमार्ग के आठ अंग बतलाये गये है, उनमें पहले चार अंग हठयोग के अन्तर्गत आते हैं और पिछले चार अंग राजयोग के माने जाते हैं। वेदान्त, ज्ञानमार्ग को महत्व देता है, तो भक्ति-संप्रदाय सब से सरल और सीधा मार्ग भक्ति को ही बतलाता है। जैन धर्म में सम्यक्दर्शन, ज्ञान और चारित्र को मोक्ष-मार्ग बतलाया गया है। सम्यग्दर्शन में श्रद्धा को प्रधानता दी गई है, अतः उसका संबंध भक्तिमार्ग से जोड़ा जा सकता है, कर्म या योग का चारित्र से ज्ञान तो सर्वमान्य है हो, क्योंकि उसके बिना भक्ति किसकी और कैसे की जाय तथा कर्म कौन-सा अच्छा है और कौनसा बुरा-इसका निर्णय नहीं हो सकता। __अपने से अधिक योग्य और सम्पन्न व्यक्ति के प्रति आदर-भाव होना मानव की सहज वृत्ति ही है। महापुरुष या परमात्मा से बढ़कर श्रद्धा या आदर का स्थान और कोई हो नहीं सकता। गुणी व्यक्ति की पूजा या भक्ति करने से गुणों के भिगवान के सगुण व निर्गुण दो भेद करके उसकी उपासना दोनों रूपों में की जाती है । इस रीति से निर्गुणोपासक व सगुणोपासक भक्त कहा जाता है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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