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सञ्चालकीय वक्तव्य अक्षर संख्या के गुणन से ४,६६८ श्लोक संख्या आती है, परन्तु अति में ४,५०० ही लिखी है।
(२) संख्या २८००० पर अंकित प्रति का विवरण :
पत्र सं० १२० पंक्ति प्रति पृष्ठ = १३ माप ३०४ १३ सी. एम. अक्षर प्रति पंक्ति=५०
लिपि संवत् १६०४ वि० पुष्पिका-"इति श्री भक्तमाल की टीका संपूरण समापतः ॥ सुभमस्तु कल्याणरस्तु ॥ लेषकपाठकयो ब्रह्म भवतु ॥ छप छंद ॥३३३॥ मनहर छंद ॥१४१॥ हंसाल छंद ॥४॥ साषी ॥३८॥ चौपई ॥२॥ इंदव छंद ॥७५॥ राघोदासजी कृत भक्तमाल संपूर- ६॥ इंदव छंद ॥ चतुरदास कृत टीका सब छ ॥६२१॥ सरबस' कैबित १५ ग्रंथ की श्लोक संख्या ॥४१.१॥"
यहाँ प्रति में दोहरा हंसपद लगाकर दक्षिण हाशिए पर निम्न दो दोहे सूक्ष्माक्षरों में लिखे हैं :
अष्यर वतीस ग्यन करि, संख्या चार हजार । तामैं प्ररथ अनूप है, बकता लह बिचार ॥१॥ मैं मतः सारू प्रापरणी, ग्रन्थ जो लिष्यो बिचार ।
संचर घाल प्रति घणो, बकता बकसपहार ॥२॥ लिषतं सुमसथान रामगढ मध्ये ॥ सुकल पक्षे तिथ भादव सुधि पंचमी मंगलवार बार ॥ संबत ॥१६॥४॥ का ॥" इसके आगे "दादूजी दयाल पाट ग्रीब मसकीन ठाठ" आदि पद्य लिखे हैं, जो पुस्तक के पृ० २७० पर मुद्रित हैं। ये पद्य २१६७७ वाली प्रति में नहीं हैं।
इस प्रति की पुष्पिका में लिखे अनुसार मूल भक्तमाल की छंद संख्या ५५३ है, परन्तु जोड़ने पर ५९३ पाती है। इसमें टीका के उल्लिखित ६२१ छंद जोड़ने से योग १,२१४ प्राता है, परन्तु प्रति में १,१८५ ही लिखे हैं। प्रति में समस्त श्लोक संख्या ४,१०१ ही लिखी है, परन्तु उपर्युक्त प्रकार से पृष्ठ संख्या, प्रतिपृष्ठ पंक्ति संख्या एवं प्रतिपंक्ति अक्षर संख्या का गुणनफल ४,८७५ आता है।
विद्वान सम्पादक श्री अगरचन्दजी ने प्रस्तुत पुस्तक के सम्पादन में पूरी रुचि लेकर पाठ-शोधन, पाठान्तर, सूचनागर्भित प्रस्तावना और आवश्यक परिशिष्ट प्रादि का सङ्कलन कर पुस्तक को उपयोगी बनाने का यथाशक्य पूरा प्रयत्न किया है। तदर्थ वे हमारे धन्यवाद के पात्र हैं। जयपुर के दादूमहाविद्यालय के प्राण स्वामी मंगलदासजी महाराज ने भी अतिरिक्त सूचनाएँ व
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