Book Title: Bhagwati Sutra Vyakhyan Part 01 02
Author(s): Jawaharlal Aacharya
Publisher: Jawahar Vidyapith

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Page 17
________________ मिलावट की होती तो यह सच्चा आभूषण न कहलाता, मगर उन्होंने ऐसा नहीं किया। उन्होंने अपनी ओर से कुछ भी सम्मिश्रण नहीं किया है यह बात सुधर्मा स्वामी ने जगह-जगह स्पष्ट कर दी है। 'तेण भगवया एवमक्खायं' इत्यादि वाक्य इस सत्य की प्रतीति कराते हैं। तात्पर्य यह है कि भगवान् के अनन्त ज्ञान रूपी खान से निकले हुए ज्ञान रूपी रत्न को सुधर्मा स्वामी ने सूत्र रूपी आभूषण में जड़ दिया है, अतएव मैं श्रीमान् सुधर्मा स्वामी को भी नमस्कार करता हूं। सुधर्मा स्वामी ने भगवान् के अनन्त ज्ञान से निकले हुए ज्ञान-रत्न को सूत्र-आभूषण में जड़ दिया, तथापि उनके पश्चात् होने वाले अनेक आचार्यों ने इसकी व्याख्या करते हुए इसे सुरक्षित रक्खा है। अतएव उक्त सब आचार्य भी महान उपकारक हैं। इसलिए टीकाकार ने कहा है "सर्वानुयोगवृद्धेभ्यो" अर्थात्-इससे पहले सूत्र की व्याख्या अनेक आचार्यों ने की है। उन आचार्यों के अनुग्रह से ही यह सूत्र रूपी रत्न का आभूषण हमें प्राप्त हुआ है। इसलिए उन सब अनुयोग वृद्ध आचार्यों को भी नमस्कार करता हूँ। अन्त में टीकाकार आचार्य भगवान् की वाणी को नमस्कार करते हैं वाण्यै सर्वविदस्तथा अर्थात्-जिनकी वाणी समस्त वस्तुओं के ज्ञान को प्रकाशित करने वाली है, जो वाणी भगवान् से निकली है, उस सर्वज्ञ वाणी को भी मैं नमस्कार करता हूं। टीकाकार ने अपने मनोभाव प्रकट करते हुए मंगलाचरण पश्चात् कहा है एतट्टीका-चूर्णी जीवाभिगमादिवृत्तिलेशांश्च। संयोज्य पञ्चमागं, विवृणोमि विशेषतःकिञ्चित्।। अर्थात्-टीकाकार कहते हैं कि टीका रचने का मेरा यह प्रयास स्वयं बुद्धि से नहीं हैं, किन्तु टीका, चूर्णी जीवाभिगम की टीका के अंशों आदि की सहायता से कुछ विस्तार के साथ पांचवें अंग की कुछ विस्तृत यह टीका बना रहा हूं। आचार्य के इस कथन से प्रकट है कि भगवती सूत्र पर इस टीका से पहले भी कोई टीका विद्यमान थी। वह टीका संभवतः कुछ संक्षिप्त होगी और इस कारण भगवती सूत्र के मूलगत भाव को समझने में अधिक उपयोगी न होती होगी, अतः सामान्य शिष्यों को भी समझाने के अभिप्राय से आचार्य ने ६ श्री जवाहर किरणावली

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