Book Title: Bhagwati Sutra Vyakhyan Part 01 02
Author(s): Jawaharlal Aacharya
Publisher: Jawahar Vidyapith

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Page 16
________________ 1 सूर्य - - प्रकाश द्वारा वस्तुओं को देखते हैं । इसी प्रकार भगवान् इन्द्रियां होने पर भी इन्द्रियों से नहीं जानते-देखते हैं। उनकी इन्द्रियों का होना और न होना समान है । इस अपेक्षा से भगवान् को करणव्यपेत कहा है । यद्यपि अरिहंत भगवान् सशरीर हैं तथापि वह शरीरासक्ति से सर्वथा रहित हैं । उनमें तनिक भी देह की ममता नहीं है । अतएव शरीर के प्रति मोह रहित होने से उन्हें करणव्यपेत कहा गया है । इस प्रकार पूर्वोक्त विशेषण से विशिष्ट श्री अरिहंत भगवान् को तथा सिद्ध भगवान् को, जिन्होंने कर्म रूपी रिपुओं को जीत लिया है, मैं प्रणाम करता हूं। यह सामान्य रूप से जिनेन्द्र भगवान् की स्तुति की गई है। अब टीकाकार आचार्य सन्निकट उपकारक और वर्तमान में जिनका शासन चल रहा है उनका नाम लेकर नमस्कार करते हैं । 'नात्वा श्री वर्द्धमानाय, श्रीमते च सुधर्मणे ।' अर्थात् - श्री वर्द्धमान भगवान् को मैं नमस्कार करता हूं। यद्यपि इस सूत्र के मूल कर्त्ता श्री सुधर्मा स्वामी हैं, लेकिन सुधर्मा स्वामी ने इसकी रचना भगवान् महावीर से सुनकर की है। अतएव सुधर्मा स्वामी के श्री गुरु लोक कल्याणकारी भगवान् श्री वर्द्धमान को मैं नम्रतापूर्वक प्रणाम करता हूं। भगवान् महावीर की दिव्य ध्वनि का आश्रय लेकर श्री सुधर्मा स्वामी यदि इस सूत्र की रचना न करते तो आज हम लोगों को भगवान् की वाणी का लाभ कैसे मिलता ? अतएव श्री सुधर्मा स्वामी भी हमारे उपकारक हैं। इस कारण उन्हें भी नमस्कार करता हूं। हीरा और मोती होता है खान और समुद्र में, मगर यदि होशियार शिल्पकार मोती और हीरे को आभूषण रूप में प्रस्तुत न करे तो क्या मोती या हीरा शरीर पर ठहर सकता है? नहीं । अगर शिल्पकार असली हीरे या मोती को आभूषण में न लगाकर नकली लगावे तो क्या कोई शिष्ट पुरुष उस आभूषण की कद्र करेगा ? नहीं । अगर सच्चे मोती कुशलता के साथ आभूषण में लगाये गये हों तो उन्हें शरीर पर धारण करने में सुविधा होती है और पीछे वालों को भी इस आभूषण के धारण करने में आनन्द होता है इसी प्रकार भगवान् की अनन्त ज्ञान की खान से यह श्रुत-रत्न उत्पन्न हुआ है, तथापि सुधर्मा स्वामी जैसे कुशल शिल्पकार इसे आभूषण के समान सूत्र रूप में न रचते तो ज्ञान रत्न का यह आभूषण हमें प्राप्त न होता। अगर इसमें सुधर्मास्वामी ने अपनी ओर से कुछ श्री भगवती सूत्र व्याख्यान ५

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