Book Title: Bhagavana Mahavir Adhunik Sandarbh me
Author(s): Narendra Bhanavat
Publisher: Motilal Banarasidas

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Page 17
________________ ( ग ) ने देखा कि समाज में दो वर्ग हैं । एक कुलीन वर्ग जो कि शोषक है, दूसरा निम्न वर्ग जिसका कि शोषण किया जा रहा है। इसे रोकना होगा। इसके लिए उन्होंने अपरिग्रहदर्शन की विचारधारा रखी, जिसकी भित्ति पर आगे चल कर आर्थिक क्रांति हुई। उस समय समाज में वर्ण-भेद अपने उभार पर था । ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र की जो अवतारणा कभी कर्म के आधार पर सामाजिक सुधार के लिए, श्रम-विभाजन को ध्यान में रखकर की गई थी, वह आते-आते रूढ़िग्रस्त हो गई और उसका आधार अब जन्म रह गया । जन्म से ही व्यक्ति ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र कहलाने लगा। फल यह हुआ कि शूद्रों की स्थिति अत्यन्त दयनीय हो गई । नारी जाति की भी यही स्थिति थी। शूद्रों की और नारी जाति की इस दयनीय अवस्था के रहते हुए धार्मिक-क्षेत्र में प्रवर्तित क्रांति का कोई महत्त्व नहीं था । अतः महावीर ने बड़ी दृढ़ता और निश्चितता के साथ शूद्रों और नारी जाति को अपने धर्म में दीक्षित किया और यह घोषणा की कि जन्म से कोई ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्रादि नहीं होता, कर्म से ही सब होता है । हरिकेशी चांडाल के लिए, सद्दाल पुत्त कुम्भकार के लिये, चन्दनवाला (स्त्री) के लिए उन्होंने अध्यात्म साधना का रास्ता खोल दिया। आदर्श समाज कैसा हो ? इस पर भी महावीर की दृष्टि रही । इसीलिये उन्होंने व्यक्ति के जीवन में व्रत-साधना की भूमिका प्रस्तुत की। श्रावक के वारह व्रतों में समाजवादी समाज-रचना के आधारभूत तत्त्व किसी न किसी रूप में समाविष्ट है । निरपराधी को दण्ड न देना, असत्य न बोलना, चोरी न करना, न चोर को किसी प्रकार की सहायता देना, स्वदार-संतोप के प्रकाश में काम भावना पर नियन्त्रण रखना, आवश्यकता से अधिक संग्रह न करना, व्यय-प्रवृत्ति के क्षेत्र की मर्यादा करना, जीवन में समता, संयम, तप और त्याग वृत्ति को विकसित करना-इस व्रत-साधना का मूल भाव है । कहना न होगा कि इस साधना को अपने जीवन में उतारने वाले व्यक्ति, जिस समाज के अंग होंगे, वह समाज कितना आदर्श, प्रगतिशील और चरित्रनिष्ठ होगा । शक्ति और शील का, प्रवृत्ति और निवृत्ति का यह सुन्दर सामंजस्य ही समाजवादी समाज-रचना का मूलाधार होना चाहिये । महावीर की यह सामाजिक क्रांति हिंसक न होकर अहिंसक है, संघर्षमूलक न होकर समन्वयमूलक है। प्राथिक क्रांति: ___ महावीर स्वयं राजपुत्र थे । धन-सम्पदा और भौतिक वैभव की रंगीनियों से उनका प्रत्यक्ष सम्बन्ध था इसीलिये वे अर्थ की उपयोगिता को और उसकी महत्ता को ठीक-ठीक समझ सके थे । उनका निश्चित मत था कि सच्चे जीवनानंद के लिये आवश्यकता से अधिक संग्रह उचित नहीं । आवश्यकता से अधिक संग्रह करने पर दो समस्यायें उठ खड़ी होती हैं । पहली समस्या का सम्वन्ध व्यक्ति से है, दूसरी का समाज से । अनावश्यक संग्रह करने पर व्यक्ति लोभ-वृत्ति की ओर अग्रसर होता है और समाज का शेप अंग उस वस्तु विशेष से वंचित रहता है । फलस्वरूप समाज में दो वर्ग हो जाते हैं-एक सम्पन्न, दूसरा विपन्न: और दोनों में संघर्ष प्रारम्भ होता है । कार्ल मार्क्स ने इसे वर्ग-संघर्ष की संज्ञा दी है, और

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