Book Title: Bahubali tatha Badami Chalukya
Author(s): Nagarajaiah Hampa, Pratibha Mudaliyar
Publisher: Rashtriya Prakrit Adhyayan tatha Anusandhan Sanstha

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Page 7
________________ vili | बाहुबलि तथा बादामी चालुक्य तथा परिप्रेक्ष्य देना अभीष्ट था। प्रस्तुत पुस्तक जैनधर्म के समयोचित अवधि का प्रामाणिक समीक्षात्मक इतिहास प्रस्तुत करने का प्रयास है। __ प्रस्तुत पुस्तक पुरालेखिय स्त्रोतों, शिल्पकलागत साक्षों तथा विशद क्षेत्र-कार्य तथा साहित्यिक परंपराओं पर आधारित है जो इन प्राथमिक परिप्रेक्ष्यों पर केंद्रित है तथा पहले की कमी को पूरा करती है। इस प्रक्रिया में अबतक उपेक्षित सूचनाओं, राजनीतिक तथा सांस्कृतिक अज्ञात स्त्रोतों को प्रकाश में लाया गया है। उक्त पुस्तक तत्कालीन कला, शिल्पकला, पुरातत्व, शिल्प संरचना, धार्मिक विचार तथा सामाजिक राजनीतिक तथा आर्थिक इतिहास के इर्द गिर्द ही घूमती है। हालांकि मैंने कुछ प्राथमिक पुस्तकें लिखकर स्पष्टरूप से परिभाषित तथा सुनियोजित योजना द्वारा विभिन्न शाही साम्राज्यों के संदर्भ में उपलब्ध समकालीन जैन रिकार्डों को वर्गीकृत करने का प्रयास किया है। अबतक इस धारा में मेरे पहले के ग्रंथ जैसे पूर्वी गंग, परवर्ती गंग, राष्ट्रकूट तथा बोलते हुए विक्रमादित्य (षष्ठ) आदि पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। उक्त पुस्तक जैसा कि ऊपर कहा गया है, वातापी के शाही चालुक्यों के शासनकाल में जैनधर्म का स्थान निर्धारित करनेवाली इतिहास की पुस्तक है। मेरी यह पुस्तक इतिहासकार तथा मंदिर शिल्पकला विशेषज्ञ दोनों के लिए अनुपूरक हो सकती है किंतु पहले के विद्वानों में अपनी पहचान नहीं बना सकती। इस पुस्तक में जो सामग्री मैंने जोडी है तथा जिनका विचार किया जा रहा है वह पहली बार ही है। जैनधर्म (उसके उद्भव तथा कर्नाटक में उसके प्रवेश तक) भारतीय समाज को निर्माण करनेवाली प्रमुख शक्तियों में से एक है। इतना ही नहीं भारतीय समाज का कोई भी ऐसा क्षेत्र नहीं जो जैनधर्म से प्रभावित नहीं हुआ हो। मूर्तिकला, कला, शिल्पकला, दर्शन, साहित्य तथा संस्कृति आदि में जैन परंपरा प्रचुर तथा विभिन्नता लिए हुए हैं। चालुक्य जैनधर्म के प्रति कितने उत्साहित थे इसका प्रमाण है उनके उत्कीर्णित लेख तथा वर्तमान भव्य दिव्य स्मारका राज्य ने जैनधर्म को कितनी उदारता प्रदान की इसकी गवाह है मेरी प्रकाशित पुस्तकें। अतः इस पुस्तक का प्रमुख उद्देश्य निग्रंथ पंथ का लक्षण, उनका स्थान, उनकी उत्पत्ति तथा इतिहास लेखकों का रिकार्ड देना रहा है जो इस युग में प्रचलित था। इसके महत्वपूर्ण स्त्रोत है तत्कालीन पुरालेख, वास्तुशिल्पों के अवशेष तथा संपोषक साहित्या इसमें ऐसा कोई प्रयास नहीं किया गया है कि धर्मों के मध्य न्याय किया जाय, बल्कि मुख्य उद्देश्य तथ्यों की प्रस्तुति है न कि बहस। अतः Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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