Book Title: Avashyaka Kriya Sadhna
Author(s): Ramyadarshanvijay, Pareshkumar J Shah
Publisher: Mokshpath Prakashan Ahmedabad

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Page 10
________________ करना चाहिए। क्योंकि इसके द्वारा ज्ञानादि (६) गर्हा-चारित्रपालन में लगे हुए दोषों की गुरु आदि की गुणों की विशुद्धि और वृद्धि होती है । साक्षी के द्वारा निन्दा करना । (७) शुद्धि-विविध प्रकार के "लोगस्स" के बाद मुहपत्ति पडिलेहण तथा प्रायश्चित के द्वारा चारित्र के दोषों को दूर करना । इस प्रकार दो वांदणा दिये जाते हैं । यह तीसरा प्रतिक्रमण आवश्यक के अन्य पर्यायवाची शब्द सम्भव हैं, आवश्यक कहलाता है। परन्तु उन सब का अर्थ एक ही है- अप्रशस्त भावों से पीछे (४) प्रतिक्रमण- की गई भूलों से विराम की प्रक्रिया । मूल मुड़कर प्रशस्त भाव में आना। गुणों अथवा उत्तर गुणों में हुई स्खलना (भूल) की प्रतिक्रमण आवश्यक से होनेवाले लाभ आत्मा की साक्षी में निन्दा करना । गुरुभगवंतों के पास प्रश्न : हे भगवंत ! प्रतिक्रमण से जीव को क्या प्राप्त होता है? गर्दा (निन्दा) करना तथा गुरुभगवंत के पास आलोचना उत्तर : हे गौतम ! प्रतिक्रमण से जीव के व्रत में होनेवाले छिद्र (कथन) करना । यह प्रतिक्रमण नामक आवश्यक आवश्यक भर जाते हैं। व्रत के छिद्र भर जाने के कारण आश्रव का निरोध कहलाता है । इसके द्वारा मूल तथा उत्तर गुणों की होता है। आश्रव का निरोध होने से चारित्र निर्दोष बनता है तथा विशुद्धि तथा वृद्धि होती है । वांदणा के बाद निर्दोष चारित्रवाला जीव अष्टप्रवचनमाता के पालन में उपयोग "इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! देवसिअं आलोउं ? से युक्त बनकर संयम में अनन्यरूप से सुप्रणिधान पूर्वक विचरण 'आयरिय उवज्झाये' तक चौथा आवश्यक कहलाता है करता है। (उत्तराध्ययनसूत्र-अध्ययन-२९) ।" (पक्खी-चौमासी तथा संवत्सरी प्रतिक्रमण का चौथे जिज्ञासा : प्रतिक्रमण की क्रिया योगस्वरूप क्यों कहलाती है? आवश्यक में समावेश होता है।) तृप्ति : सच्चा योग मोक्षसाधक ज्ञान तथा क्रिया उभयस्वरूप है। (५) काउस्सग्ग- स्थान से, मौन से तथा ध्यान से काया का भगवान् श्री हरिभद्रसूरीश्वरजी महाराज 'योग विंशिका' नामक त्याग । भावप्राण को जलानेवाली राग-द्वेष रूपी अग्नि ग्रन्थरत्न में कहते हैं किकी शान्ति के लिए तथा दर्शन-ज्ञान व चरित्र की मखेण जोयणाओ जोगो सव्वोवि धम्मवावारो आराधना के निमित्त काउस्सग्ग करना चाहिए । मोक्षेण योजनाद्योगः सर्वेऽप्याचार इष्यते। काउस्सग्ग के द्वारा वीर्याचार की विशुद्धि तथा वृद्धि भावार्थ : जीव को परम सुखस्वरूप मोक्ष के साथ होती है। "आयरिय उवज्झाये" के बाद दो लोगस्स तथा जोड़नेवाला, सम्बन्ध करानेवाला सभी साधु-भगवंतों का एक-एक लोगस्स का काउस्सग्ग करना होता है । यह भिक्षाटनादि तथा उपचार से श्रावकों का भी हर प्रकार का पाचवा आवश्यक कहलाता है। धर्मव्यापार-सर्व प्रकार का धर्माचरण योग है। दूसरे शब्दों में (६) पच्चक्खाण- मर्यादापूर्वक की प्रतिज्ञा । त्याग रूपी गुण विचार किया जाए तो मोक्ष में कारणभूत आत्मा का सम्पूर्ण को विकसित करने तथा प्रत्येक कार्य की सिद्धि हेतु व्यापार ही सचमुच में योग कहलाता है । अथवा पच्चक्खाण (प्रतिज्ञा) का सहारा होना आवश्यक है। धर्मव्यापारत्वमेव योगत्वम्-धर्मव्यापार ही योग का उत्तम लक्षण पच्चक्खाण से तपाचार की विशुद्धि तथा वृद्धि होती है। है। इस लक्षण से युक्त प्रतिक्रमण की क्रिया सच्ची योगसाधना वीर्याचार की शुद्धि होती है। प्रातःकाल नवकारशी तथा है । इसके अतिरिक्त मात्र आसन, प्राणायाम, ध्यान, धारणा सन्ध्याकाल में चौविहार का पच्चक्खाण लिया जाता है। अथवा समाधि की क्रिया मोक्षसाधक योग स्वरूप बनती है उसके द्वारा तपाचार का पालन होता है। ऐसा नियम नहीं है । मोक्ष के ध्येय से होनेवाली अष्टांगयोग की काउस्सग्ग के बाद पच्चक्खाण ग्रहण-स्मरण-धारण प्रवृत्ति को जैनाचार्यों ने मान्यता दे रखी है। फिर भी उसमें दोष आदि किया जाता है।" यह छट्टा आवश्यक कहलाता है। तथा भयस्थान विद्यमान हैं। वह भी बतलाया गया है। इस प्रकार छह आवश्यकों के द्वारा ज्ञानाचार, दर्शनाचार, जैन सिद्धान्त कहता है कि किसी भी आसन में तथा किसी चारित्राचार, तपाचार तथा वीर्याचार, इन पाच आचारों की भी (बैठे, खड़े, सोए ) अवस्था में मुनि केवलज्ञान तथा मोक्ष विशुद्धि तथा वृद्धि होती है। प्राप्त कर सकते हैं। इसके सम्बन्ध में कोई निश्चित नियम नहीं है। प्रतिक्रमण आवश्यक के नियम मात्र परिणाम की विशुद्धि का है। परिणाम की विशुद्धि पर्यायवाची शब्द तथा विवरण जिस प्रकार हो, उसी प्रकार का वर्तन करना चाहिए । कर्मक्षय (१) प्रतिक्रमण-अप्रशस्त योग में से पीछे मुड़ना । (२) अथवा मोक्षलाभ का यह असाधारण कारण (उपाय) है और प्रतिचरणा-संयम की परिचर्या करनी। (३) प्रतिहरणा-चारित्र वही वास्तविक योग हैं। प्रतिक्रमण की क्रिया परिणाम की की रक्षा के लिए असावधानी को छोड़ देना । (४) वारणा- विशुद्धि का एक अनुपम उपाय है। अतः वह भी एक प्रकार का इन्द्रियों को विषय वासना विमुख करना (रोकना) । (५) योग ही है और साथ ही मोक्ष का कारण है। इस आलम्बन को निवृत्ति-चारित्रपालन में लगे हुए अतिचारों से निवृत्त होना ।' लेकर हम शीघ्र निरालम्बी बनें इसी अन्तर्भाव के साथ...... For Private & Personal Use Only

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