Book Title: Atmanand Prakash Pustak 017 Ank 12
Author(s): Jain Atmanand Sabha Bhavnagar
Publisher: Jain Atmanand Sabha Bhavnagar
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પંદરમી સદીમાં બેલાતી ગુજરાતી ભાષા. 31 " लोअपवाहे सकुलकमंमि जइ होइ मूढ ध मुत्तिता मिच्छाणवि धम्मो थक्काय अहम्मपरिवाडी ।। " हे मूढ-मूर्ख जड लोकनरं प्रवाहि आपणइ २ कुलाचारि चालतां धर्म हुई तु कुणएक धर्मवंत नहि सघलाइ षाट की माछी वेश्या घांची मोची ठठार प्रमुख सहुइ आपणइ २ कुलाचारि चालई छई । आगि लाई वडा पूर्वज जे काम करताते पाछिलाई करई छई । तामिच्छाण. तु पापी हिं. साना करणहार कुमारगना चालणहार म्लेच्छ तेरहई धर्म हूइ ते हइ धर्मवंत हुआ । थक्का • अधर्म पापनी परिपाटि परंपरानी बातइ माठी। अधर्म किहां। छई नही सहू धर्मवंतइ जिहूऊं। एतलइ इसिऊ भाद कुलाचार जूऊ धर्मनु मार्ग जूऊ । कुलाचार किहिनु केतलु पुण्यमय हूइ कितनु पापमय हुइ पुरण धर्मनु आचार जिहां जीवदया सत्यवचन ब्रह्मचर्यादिक गुण तिहाइ जि छई अनेथि नथी । केती वारइं पूर्वज दालिद्री हुखिई तु संतानीई किसिऊं लक्ष्मी प्रावती न लेवी । अथ को पुर्वजइ कूद पडी मुंऊ हूसिइ तु संतानीइं किसिङ कूद पडी भरिवउ । एह भणी कुलाचारनु कोई नहीं सूधउ धर्मजि जाण हूंतइं तेवउ" ૬૦ શ૦ બા૦ પત્ર ૩
“धर्म करतां लगार काई विघ्न पडइ अजाण लोक ते लेई धर्मरई लगाडई ए वात कहइ छई
“मिच्छतसंवगाणं विग्घसयाई पि बिति नो पावा ।
विग्घलवमि वि पडिए दृढधम्माणं पणचंति ॥” मिच्छ० मिथ्यात्वना करणहारनइं अने राई संसारनां काज व्यवसाय वीवाहादिक करतां विन अंतराय दुःख उपसर्गना सई पडइ ते ऊ पापी लोक ते बोलइ नहीं । विग्घ० अनई जे दृढधर्म खरा धर्मना कर्तव्य करई छई तेहंद्ई केतीवारंइं वित्रलय लेशमात्र थोडुइ अंतराइ दुःख पडइ तु मूढलोक नाचई एहहई धर्मकरतां आम हूउं इसिउं न जाणई निश्चई धर्मकरतां रुडुं जि हुइ धर्मि विघ्न विलय जाइं जिम आगिपाणी करी उल्हाइ जि पुण प्रमाण जाणिवू । जइ थोडउ अंगारमात्र आगि हुइ तु चुलूइ मात्रि पाणीई उल्हाइ पणि दवानल ज्वलतु हुइ तु थोडइं पाणी कांइ नहीं मेघ वरसइ घणु पाणी पडइ तजि उल्हाइ तिम थोडउ पाछिला भवनुं पापकर्म थोडई धर्मिई विलय जाइ पुण कर्म घणु हुइ अनई धर्म थोडउं हुइ तु किम तीणइं धर्मिइ घणुं कर्म विलय जाइ । पुरम एक
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