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जैन धर्म अमृत स्वरूप है ऐसा जैन कहते हैं । चित्राद्वैतवादी चित्रज्ञान को एकरूप सिद्ध करने का प्रयत्न करता है । माध्यमिक बौद्ध ज्ञान को निरंश सिद्ध करता है । निरंशज्ञानवादी बौद्ध चित्रज्ञानवादियों का खण्डन करता है। सांख्य सुखादि को अचेतन स्वीकार करता है उस पर विचार । बौद्ध सुखादि पर्यायों को ज्ञानात्मक सिद्ध करना चाहता है उसका निराकरण । योग आत्मा को अचेतन कह रहा है उसका निराकरण । बौद्ध अणु-अणु को पृथक्-पृथक् मानता है, स्कंध नहीं मानता है उसका विचार । सांख्य स्कन्ध को ही स्वीकार करता है परमाणु को नहीं मानता है उसका विचार । सभी वस्तुएं अनेकान्तस्वरूप हैं इस बात को आचार्य स्पष्ट करते हैं । प्रत्यक्ष प्रमाण ही एकान्त कल्पना को समाप्त कर देता है। अपने सिद्धान्त के समर्थन से ही परमत का निराकरण हो जाता है पुनः पृथक कारिका के द्वारा परमत का निराकरण क्यों किया ? ऐसा प्रश्न होने पर विचार किया जाता है। बौद्ध कहता है कि अन्वय-व्यतिरेक में से किसी एक के प्रयोग से ही अर्थ का ज्ञान हो जाता है पुन: एक साथ दोनों का प्रयोग करना निग्रहस्थान है-भाचार्य इस पर विचार करते हैं। बौद्ध कहता है कि वादकाल में प्रतिज्ञा का प्रयोग करना निग्रहस्थान है। जैनाचार्य इस कथन का निराकरण करते हैं। जैनाचार्य कहते हैं कि समर्थन भी वचनाधिक्य नाम का दूषण हो जाएगा, तब बौद्ध समर्थन का समर्थन करके उसको दोष नहीं मानता है। शून्यवादी और अद्वैतवादी जनों के यहाँ परलोकादि व्यवस्था नहीं है । शून्यवादी कहता है कि असत्वस्तु में ही पुण्यपापादि व्यवस्था बनती है उस पर विचार। बौद्ध कार्य को सकारणक सिद्ध कर रहे हैं उस पर विचार । बौद्ध नित्यपक्ष में कार्य की उत्पत्ति नहीं मानता है उस पर विचार । कारण कार्य के काल में रहता है या नहीं?
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