Book Title: Ashtsahastri Part 2 Author(s): Vidyanandacharya, Gyanmati Mataji Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan View full book textPage 7
________________ क्रम संख्या ६८ ६६ ७० ७१ ७२ ७३ ७४ ७५ ७६ ७७ ७८ ७६ ५० ८१ ८२ ८३ ८४ ८५ ८६ ८७ ८८ ८६ ( ६ ) विषय यहाँ तक इतरेतराभाव को सिद्ध करके अब आचार्य अत्यंताभाव को सिद्ध कर रहे हैं। बौद्ध का कहना है कि प्रत्यक्ष और अनुमान ये दोनों प्रमाण अभाव को नहीं ग्रहण कर सकते हैं । इस पर जैनाचार्य उस बौद्ध को अस्वस्थ बतलाते हुये उसकी चिकित्सा करते हैं । यदि बौद्ध अभाव को प्रमाण का विषय मान लेते हैं तो उनकी दो रूप प्रमाण संख्या नहीं रहती है, तीन प्रमाण मानने पड़ेंगे । जो बौद्ध सर्वथा अभावरूप ही तत्व स्वीकार करते हैं उनका खंडन । नैरात्म्यवाद का लक्षण । नैरात्म्यवाद में दोषारोपण हेतु में तीन रूप के बिना भी साध्य की सिद्धि के प्रकार को दिखलाते हैं । अविनाभाव के अभाव में हेतु अहेतु है । नैरात्म्य को सिद्ध करने के लिये हेतु का प्रयोग आवश्यक । संवृति शब्द का अर्थ क्या है ? विचारों का न होना संवृति है, इस मान्यता से हानि सारा जगत् मायास्वरूप है और स्वप्नस्वरूप है ऐसा मानने से क्या हानि है ? यह समस्त जगत् भ्रांतिस्वरूप है। निरपेक्ष असत् सत् और को मानने वाले भाट्ट का निराकरण । परस्पर निरपेक्ष सत्-असत् दोनों को मानने वाले सांख्य का खण्डन । बौद्ध अपने तत्त्व को अवाच्य सिद्ध करने के लिये अनेक युक्तियों का प्रयोग करता है और जैनाचार्य उन युक्तियों का खण्डन करते हैं। बौद्ध का निर्विकल्पज्ञान पदार्थों से उत्पन्न होकर ही उन पदार्थों को जानता है, तब वह ज्ञान इन्द्रियों से भी उत्पन्न होता है, पुनः इन्द्रियों को क्यों नहीं जानता ? बौद्ध निर्विकल्प दर्शन को सविकल्पज्ञान का हेतु मानते हैं किन्तु जैनाचार्य उसका निराकरण करते हैं। बौद्ध मत में स्मृति पर विचार। बौद्ध मत में निर्विकल्पदर्शन को व्यवसायात्मक न मानने से सकल प्रमाण, प्रमेय का लोप हो जाता है । बौद्ध स्वलक्षण और सामान्य में भेद सिद्ध करता है । स्वलक्षण क्या है ? Jain Education International पृष्ठ संख्या For Private & Personal Use Only २१७ २२१ २२८ २३५ २३५ २३५ २३७ २३८ २४० २४१ २४३ २४४ २४५ २४६ २५१ २५४ २५६ २५८ २६५ २६७ २६८ २७० www.jainelibrary.orgPage Navigation
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