Book Title: Ashtsahastri Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 12
________________ इनसे भी आप महान् नहीं हैं अर्थात् देवों के शरीर में भी पसीना मलमूत्रादि नहीं हैं उनके यहाँ भी गंधोदक वृष्टि आदि वैभव होते हैं अत: इन महोदय से भी आप हमारे पूज्य नहीं हैं। मानों पुनः भगवान् कहते हैं कि हे समंतभद्र ! रागादिमान् देवों में भी असंभवी ऐसे तीर्थकृत् संप्रदाय को चलाने वाला 'मैं तीर्थंकर हूँ' अत: मैं अवश्य ही तुम्हारे द्वारा स्तुति करने के योग्य हूँ । इस पर श्रीसमंतभद्रस्वामी प्रत्युत्तर देते हुये के समान कहते हैं कि हे भगवन् ! आगमरूप तीर्थ को करने वाले सभी तीर्थंकरों के आगमों में परस्पर में विरोध पाया जाता है अतः सभी तो आप्त हो नहीं सकते अर्थात् बुद्ध, कपिल, ईश्वर आदि सभी ने अपने-अपने आगमों को रचकर अपना-अपना तीर्थ चलाकर अपने को तीर्थकर माना है किंतु सभी के आगम में परस्पर में विरोध होने से सभी सच्चे आप्त नहीं हो सकते हैं इसलिये इन सभी में कोई एक ही परमात्मा-सच्चा आप्त हो सकता है ऐसा अर्थ ध्वनित कर देते हैं इस कारिका की अष्टसहस्री टीका में श्री विद्यानंद महोदय ने बहुत ही विस्तार से सभी संप्रदायों का परस्पर में विरोध दर्शाया है । अन्य संप्रदायों में वेदों को प्रमाण मानने वाले वैदिक संप्रदायी हैं। उनमें मीमांसक, वैशेषिक, नैयायिक एवं सांख्य वैदिक कहलाते हैं और चार्वाक, बौद्ध आदि वेद को नहीं मानने वाले अवैदिक कहलाते हैं। आजकल कुछ लोग वेद के मानने वालों को आस्तिक एवं नहीं मानने वालों को नास्तिक कहते हैं और उसमें जैन को भी नास्तिक में लिया है क्योंकि जैन भी वेदों को प्रमाणीक नहीं मानते हैं। किन्तु वास्तव में ऐसी बात नहीं है जो आत्मा, मोक्ष, परलोक आदि के अस्तित्व को मानते हैं वे आस्तिक एवं आत्मा आदि के अस्तित्व को न मानने वाले नास्तिक कहलाते अतः चार्वाक और शून्यवादी नास्तिक हैं बाकी सभी आस्तिक की कोटि में आ जाते हैं । अस्तु ! सभी के संप्रदायों के परस्पर विरोध का यहाँ किचित् दिग्दर्शन कराते हैं। चार्वाक-पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु इन चार जड़ तत्त्वों को ही मानता है । उसका कहना है कि इन्हीं भूतचतुष्टयों के मिलने से संसार बना है और इन्हीं भूतचतुष्टयों से आत्मा की उत्पत्ति होती है । ये चार्वाक परलोक गमन, पुण्यपाप का फल आदि नहीं मानते हैं । वेदांती एक ब्रह्मरूप ही तत्त्व स्वीकार करते हैं, उनका कहना है कि एक परम ब्रह्म ही तत्त्व है संपूर्ण विश्व में जो चेतन अचेतन पदार्थ दिख रहे हैं हम और आप सभी उस एक परब्रह्मन की ही पर्यायें हैं यह चर-अचर जगत् मात्र अविद्या का ही विलास है इत्यादि । बड़े आश्चर्य की बात है कि एक कोई जड़ से चैतन्य की उत्पत्ति मान रहा है तो दूसरा चैतन्य ब्रह्म से अचेतनों की उत्पत्ति मान रहा है । दोनों में सर्वथा परस्पर विरोध है। ऐसे ही बौद्ध सभी वस्तुओं को क्षणिक मानते हैं उनका कहना है कि एक क्षण के बाद सभी वस्तुयें जड़ मूल से नष्ट हो जाती हैं जो उनका ठहरना द्वितीय आदि क्षणों में दिख रहा है वह सब कल्पना मात्र है वासना से ही ऐसा अनुभव आता है। इधर सांख्य कहता है कि सभी वस्तुयें सर्वथा नित्य ही हैं कोई वस्तु नष्ट नहीं होती है किंतु तिरोभूत हो जाती है एवं उत्पत्ति भी नहीं है वस्तु का आविर्भाव ही होता है । मिट्टी से घट बनता नहीं है बल्कि मिट्टी में घट सदा विद्यमान है कुम्हार के प्रयोग से प्रगट हो गया है इत्यादि । इन दोनों में भी सर्वथा ३६ का आंकड़ा है। वैशेषिक एक सदाशिव महेश्वर को मानकर उसे सष्टि का कर्ता मानते हैं तो मीमांसक सर्वज्ञ के अस्तित्व को न मानकर वेद वाक्यों से ही सम्पूर्ण सूक्ष्मादि अतीन्द्रिय पदार्थों का जानना मानते हैं । वेद को प्रमाण मानने वालों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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