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मीमांसक वर्गों को नित्य सिद्ध करने में प्रत्यभिज्ञान हेतु देते हैं, जैनाचार्य उस हेतु को व्यभिचारी सिद्ध करते हैं ।
१६१ शब्दाद्वैत का निराकरण । अब नैयायिक के द्वारा शब्द को आकाश का गुण मानने पर विचार किया जाता है। १६८ शब्द निश्छिद्र महल से बाहर निकलते हैं एवं प्रवेश कर जाते हैं फिर भी पौद्गलिक हैं। शब्द वर्तमानकाल में ही सुने जाते हैं भूत भविष्यत् काल में नहीं इसका निर्णय करते हैं। १७५ इतरेतराभाव का लक्षण एवं उसके न मानने से हानि । चित्राद्वैतवादी के मत में भी इतरेतराभाव सिद्ध है ।
१८५ चित्राद्वैतज्ञान एकानेकस्वभाव वाला है और एकानेकस्वभाव से इतरेतराभाव सिद्ध ही है। ज्ञान के भेद से वस्तु के स्वभाव में भी भेद मानना चाहिये ।
१८८ बौद्ध पदार्थों में सर्वथा सम्बन्ध नहीं मानते हैं।
१६० जैनाचार्य द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की निकटतालक्षण संबंध को सिद्ध करते हैं। विज्ञानाद्वैत वाद में भी चार प्रकार का संबंध सिद्ध हो जाता है आचार्य इसी बात का स्पष्टीकरण करते हैं। कार्य कारण में परतंत्रता को न मानने से आचार्य दोष दिखाते हैं ।
१६४ अर्थपर्याय की अपेक्षा से उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य इन तीनों ही अवस्थाओं में कारणों का व्यापार नहीं होता है। सभी पदार्थ उत्पाद व्यय ध्रौव्यात्मक हैं।
२०१ यहाँ पर सौगत का प्रश्न है कि जीवादि द्रव्य से उत्पाद ध्यय ध्रौव्य अभिन्न हैं या भिन्न ? एवं दोनों पक्षों में दोषारोपण करता है।
२०२ जैनाचार्य जीवादि से उत्पादादि को कथंचित भिन्नाभिन्न सिद्ध करते हैं।
२०३ त्रिकाल की अपेक्षा से उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य की सिद्धि ।
२०६ उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य की अपेक्षा से वस्तु में इक्यासी भेद सिद्ध हो जाते हैं ।
२०६ प्रत्येक धर्म में भी ८१ भेद घटित करना चाहिये। सत्ता ही द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावरूप होती है ।
२०६ सत्ता में भी ८१ भेद घटित करना चाहिये ।
२०६ विश्व व्यापी महासत्ता का स्पष्टीकरण ।
२१० पर्यायाथिकनय की अपेक्षा से ही इतरेतराभाव संभव है द्रव्याथिकनय से नहीं।
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