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अत्यन्ताभाव के अभाव में प्रकृति और पुरुष एकरूप हो जावेंगे । प्रागभाव के अभाव में महान् अहंकार आदि कार्य नहीं होंगे। प्रध्वंसाभाव के अभाव में सभी कार्यों का अन्त नहीं होगा। सांख्य भाव को अभावरूप सिद्ध कर रहा है उस पर विचार । ब्रह्माद्वैतवादी संपूर्ण जगत् को सत्रूप मानते हैं उस पर विचार । ब्रह्माद्वैतवादी प्रत्यक्षप्रमाण को भावपदार्थ का ग्रहण करने वाला ही सिद्ध करते हैं उस पर विचार। अनुमान प्रमाण से भी अभाव का ज्ञान नहीं होता है ऐसा ब्रह्माद्वैतवादी कहते हैं। जैनाचार्य जगत् को नानारूप सिद्ध कर रहे हैं। सत्ताद्वैतवादी सभी वस्तु को एकस्वरूप सिद्ध करना चाहता है उस पर विचार । सत्ताद्वैतवादी आगम से एक ब्रह्मा की सिद्धि करना चाहता है उस पर विचार । चार्वाक के द्वारा प्रागभाव का निराकरण एवं जैनाचार्य द्वारा प्रागभाव का व्यवस्थापन किया जाता है। नयायिक के द्वारा जनाभिमत प्रागभाव का खण्डन एवं तुच्छाभावरूप प्रागभाव का समर्थन । ११० चार्वाक के द्वारा नैयायिकाभिमत प्रागभाव का खण्डन । अब जैनाचार्य प्रागभाव के लोप से हानि बताते हुये नय और प्रमाण के द्वारा प्रागभाव को सिद्ध करते हैं। चार्वाक प्रध्वंसाभाव को नहीं मानता है उसका खण्डन करके आचार्य प्रध्वंसाभाव का समर्थन करते हैं।
१२६ मीमांसकाभिमत शब्द नित्यत्व का खंडन । अभिव्यक्ति के चार भेद करके क्रमशः चारों का खण्डन करते हैं।
१३६ सांख्य के द्वारा मान्य अभिव्यक्ति पक्ष का निराकरण । सांख्य कार्यद्रव्य को नहीं मानता है उस पर विचार ।
१४८ मीमांसकाभिमत शब्द की आवारक वायु का खण्डन ।
१५१ शब्द की आवारकवायु से स्वभाव का खण्डन नहीं होता है इस पर विचार किया जाता है। १५३ सभी वर्गों को नित्य एवं सर्वगत मानने पर या तो वे सदा ही सुनाई देंगे या कभी भी नहीं सुनाई देंगे, क्योंकि क्रम से सूनने का विरोध आता है।
१५६ मीमांसकों के द्वारा नाभिमत शब्दों की उत्पत्ति पक्ष में भी दोषारोपण ।
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